स्त्री सम्बन्धी बातें


भूमिका

ज्योतिषशास्त्र में स्त्री संबंधी विचार अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। विवाह, वैवाहिक जीवन, स्त्री का स्वभाव, गुण, शारीरिक गठन (आकृति), और उनके परिवार से जुड़े विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए ज्योतिष के विभिन्न नियमों और सिद्धांतों का सहारा लिया जाता है। प्रस्तुत लेख में स्त्री के विषय में ज्योतिषीय दृष्टिकोण से विचार किए गए विभिन्न पहलुओं को विस्तारपूर्वक समझाया गया है।


1. स्त्री का विचार और कारक ग्रह

ज्योतिष में स्त्री के विषय में मुख्य रूप से विचार सप्तम भाव से किया जाता है। विभिन्न स्त्रियों (जैसे प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि) के लिए विचार का क्रम इस प्रकार है:

स्त्री विचार का स्थान
प्रथम स्त्री सप्तम स्थान
द्वितीय स्त्री द्वादश स्थान
तृतीय स्त्री पंचम स्थान
अन्य पिछले स्थान से षष्ठ स्थान

शुक्र को स्त्री का मुख्य कारक ग्रह माना गया है। इसलिए शुक्र से भी स्त्री संबंधी विषयों का विचार किया जाता है। कभी-कभी धन स्थान (द्वितीय भाव) से भी स्त्री से संबंधित बातों का विचार किया जाता है। महर्षि जैमिनि ने उपपद अर्थात द्वादश स्थान के पदलग्न के द्वितीय स्थान से स्त्री से जुड़े विषयों को देखने की बात कही है।


2. स्त्री के रंगरूप और स्वभाव का विचार

स्त्री के रंग, रूप, और स्वभाव का विचार निम्नलिखित तीनों के आधार पर किया जाता है:

  • सप्तमेश (सप्तम भाव का स्वामी)
  • सप्तम स्थान
  • शुक्र (स्त्री कारक ग्रह)

इनमें से जो ग्रह सबसे अधिक बलवान हो, उसी के अनुसार स्त्री के रंग, रूप और गुणों का अनुमान होता है।

उदाहरण: यदि जातक का जन्म धनु लग्न में हो, तो उसका सप्तम स्थान मिथुन होगा। सप्तमेश बुध है, और स्त्री कारक शुक्र। इन तीनों में जो सबसे बलवान ग्रह होगा, उसी के प्रभाव से स्त्री के रंग और गुण तय होंगे।

विशेष नोट:

ज्योतिष शास्त्र में अनुमान शक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। स्त्री का रंग, रूप, और स्वभाव केवल कुछ ग्रहों और राशियों के आधार पर नहीं तय होता, बल्कि स्थान, दृष्टि, नवांश आदि के आधार पर भी इसमें विविधता आती है। अतः हर जातक की स्त्री की आकृति और गुण अलग-अलग हो सकते हैं।


3. जातक और स्त्री के गठन का विचार

जैसे जातक के रंगरूप और गठन का विचार लग्न और नवांश के आधार पर किया जाता है, उसी प्रकार स्त्री का विचार सप्तम भाव और सप्तमस्थ ग्रह के आधार पर किया जाता है।

स्थिति प्रभाव
सप्तम स्थान जल तत्व की राशि का हो स्त्री का शरीर मोटा होगा
वायु राशि, अग्नि राशि, शुष्क ग्रह की अधिकता स्त्री का शरीर दुबला-पतला होगा
पृथ्वी राशि, पृथ्वी तत्व ग्रह का प्रभाव स्त्री का शरीर दृढ़ और मजबूत होगा

ग्रह और राशियों का प्रभाव:

ग्रह राशि प्रभाव
जल ग्रह जल राशि मोटापन
अग्नि ग्रह अग्नि राशि दुबला लेकिन बलशाली
पृथ्वी ग्रह पृथ्वी राशि नाटी और दृढ़काय
वायु ग्रह वायु राशि दुबला, तीक्ष्ण बुद्धि

उदाहरण: यदि सप्तम भाव मिथुन राशि में हो और उसमें राहु तथा बृहस्पति स्थित हों, तो वायुतत्व और निर्जल तत्व के कारण स्त्री पतली होगी। लेकिन बृहस्पति के प्रभाव से अति पतली नहीं होगी।


4. नवांश के आधार पर विचार

स्त्री की आकृति का विचार सप्तम भाव के नवांश से भी किया जाता है।

उदाहरण: यदि सप्तम का स्फुट 2° 19′ है, तो उसका नवांश मीन राशि होगा। मीन राशि के स्वामी बृहस्पति के प्रभाव से स्त्री के नेत्र किंचित पिंगलवर्ण, आवाज गंभीर, वक्षस्थल चौड़ी और कद मझोला होगा।


5. अन्य पहलुओं का विचार

  • स्त्री के भाई-बहन: जाया स्थान के तृतीय स्थान से।
  • ससुराल के सदस्य:
    • सास: जाया स्थान के चतुर्थ स्थान से।
    • श्वसुर: नवम स्थान से।
    • साला और साली: जाया स्थान के तृतीय स्थान से।
    • साढ़ और सरहज: सप्तम स्थान से।

उदाहरण: यदि पहली पत्नी के भाई का विचार करना हो, तो सप्तम स्थान से तृतीय अर्थात नवम स्थान देखा जाएगा।


6. महात्मा गांधीजी की कुंडली से उदाहरण

महात्मा गांधीजी की धर्मपत्नी कस्तूरबा गांधीजी की आकृति का विचार उनकी कुंडली से:

  • सप्तम भाव में मीन राशि।
  • मीन राशि जल तत्व की पूर्ण राशि है।
  • बृहस्पति जलग्रह और तेजतत्व ग्रह है।
  • सूर्य की दृष्टि के कारण मोटापा कम हो गया।

निष्कर्ष: कस्तूरबा गांधी साधारण रूप से मोटी थीं।


निष्कर्ष

स्त्री का विचार ज्योतिषशास्त्र में अत्यंत जटिल और सूक्ष्म है। इसके लिए न केवल भाव और ग्रहों की स्थिति देखनी होती है, बल्कि दृष्टि, नवांश, तत्व, और अन्य पहलुओं को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। अतः ज्योतिषी को हमेशा अनुमान शक्ति और अनुभव के आधार पर फलादेश करना चाहिए।


विवाह योग

विवाह योग की स्थिति को समझने के लिए ग्रहों के स्थान और उनके आपसी संबंधों को ध्यान में रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। निम्नलिखित विधान इस संबंध में विभिन्न योगों और उनके प्रभावों को स्पष्ट करते हैं:

1. सप्तमाधिपति का शुभ स्थान पर न होना

यदि सप्तमाधिपति शुभ ग्रहों के साथ जुड़ा नहीं होता और वह षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित होता है, अथवा वह नीच का हो या अस्त हो, तो जातक को जाया-सुख प्राप्त नहीं होता है।

2. षष्ठेश, अष्टमेश, या द्वादशेश का सप्तम में होना

यदि षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश सप्तम भाव में स्थित हो और उसमें शुभ ग्रहों की दृष्टि या योग न हो, या सप्तमाधिपति 6, 8, 12 का स्वामी हो, तो जातक के स्त्री-सुख में बाधा होती है।

3. सप्तम में द्वादशेश का स्थिति

यदि सप्तमेश द्वादश भाव में स्थित हो और लग्नेश तथा चंद्रलग्नेश सप्तम में स्थित हों, तो जातक का विवाह नहीं हो पाता।

4. शुक्र, चंद्रमा और शनि का स्थित होना

यदि शुक्र और चंद्रमा साथ बैठकर किसी भाव में स्थित हों और शनि तथा मंगल सप्तम भाव में हों, तो जातक का विवाह नहीं हो पाता।

5. पापग्रहों का स्थिति

यदि लग्न, सप्तम और द्वादश में पापग्रह स्थित हों और पंचमस्थ चंद्रमा निर्बल हो, तो जातक का विवाह नहीं होता। यदि विवाह हो भी जाता है, तो स्त्री बंध्या होती है।

6. पापग्रहों का अधिक संख्या में होना

यदि द्वादश और सप्तम में दो या इससे अधिक पापग्रह स्थित हों और पंचम में चंद्रमा हो, तो जातक स्त्री-पुत्रविहीन होता है।

7. शनि और चंद्रमा का सप्तम में स्थित होना

शनि और चंद्रमा के सप्तम में स्थित होने से प्रायः जातक का विवाह नहीं होता और यदि विवाह हो भी जाता है, तो स्त्री बंध्या होती है।

8. सप्तम भाव में पापग्रहों का प्रभाव

यदि सप्तम भाव में पापग्रह स्थित हों, तो जातक के स्त्री-सुख में बाधा उत्पन्न होती है।

9. शुक्र और बुध का सप्तम में होना

यदि शुक्र और बुध सप्तम भाव में स्थित हों, तो जातक कलत्रहीन होता है। हालांकि, यदि शुभ ग्रहों की दृष्टि होती है, तो विवाह के समय अधिक अवस्था में स्त्री मिलती है।

10. शुभ ग्रहों का सप्तम में होना

यदि लग्न से सप्तम भाव या चंद्र से सप्तम भाव में शुभ ग्रह स्थित हों, या शुभ ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो, तो विवाह सुख की प्राप्ति होती है।

11. धूम योग का प्रभाव

यदि सूर्य सप्तम में चार राशि, तेरह अंश और बीस कला (4.13.20) जोड़कर जो राश्यादि प्राप्त होता है, वह ‘धूम’ होता है। यदि वही सप्तम स्थान स्पष्ट हो, तो ऐसे जातक का विवाह नहीं होता है।

निष्कर्ष: विवाह योग का निर्धारण ग्रहों की स्थिति और उनके आपसी संबंधों से होता है। यदि सप्तम भाव में पापग्रहों की स्थिति हो या शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो, तो विवाह में बाधाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। वहीं, शुभ ग्रहों के प्रभाव से विवाह सुख की प्राप्ति होती है।


स्त्री-संख्या विचार

क्रमांक ग्रह स्थिति संभावित स्त्री संख्या उदाहरण
1 सप्तम स्थान में बृहस्पति और बुध एक
2 सप्तम स्थान में मंगल और रवि प्रायः एक
3 लग्नाधिपति और सप्तमाधिपति दोनों लग्न या सप्तम में; द्वितीयेश और सप्तमेश स्वगृही दो; एक तिलक महाराज: द्वितीयेश सूर्य और सप्तमेश शनि, दोनों षड्वर्ग में शुभ, एक विवाह
4 सप्तमेश और द्वितीयेश 6, 8, 12 स्थान में; ये ग्रह शुभ वर्ग में एक स्त्री के मृत्यु के बाद दूसरी; एक बाबू गोपीकृष्णजी: द्वितीयेश और सप्तमेश निर्बल, पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरा विवाह
5 सप्तम या अष्टम स्थान में पाप ग्रह और मंगल द्वादश भाव में; द्वादशेश अदृश्य चक्र में दूसरा विवाह
6 लग्न, सप्तम और चंद्र लग्न द्विस्वभाव राशि में; लग्नेश, सप्तमेश और शुक्र द्विस्वभाव राशि में दो
7 लग्नेश द्वादश में, द्वितीयेश पाप ग्रह के साथ और सप्तम स्थान में पाप ग्रह दो
8 सप्तमेश शुभ ग्रहों के साथ 6, 8, 12 स्थान में और सप्तम में पाप ग्रह दो (निश्चित)
9 लग्नेश उच्च, वक्री, मूलत्रिकोणस्थ या अच्छे वर्ग में लग्न में; लग्नेश अष्टम या द्वादश स्थान में कई; दो
10 सप्तम स्थान क्रूर राशि में और सप्तमेश नीच दूसरा विवाह बाबू यमुना प्रसादजी: सप्तमेश मंगल नीच, सप्तम में पाप ग्रह केतु, दो विवाह
11 शुक्र पाप ग्रह के साथ, नीच या पाप दृष्टि में दो हरिबंश बाबू: शुक्र शनि और पाप ग्रहों की दृष्टि में
12 सप्तम या द्वितीय स्थान में पाप ग्रह और सप्तमेश व द्वितीयेश निर्बल दूसरा विवाह गोपी बाबू: द्वितीयेश और सप्तमेश दोनों निर्बल
13 मंगल सप्तम, अष्टम या द्वादश स्थान में और सप्तमेश की दृष्टि न हो दूसरा विवाह
14 द्वितीय या सप्तम स्थान में कई पाप ग्रह तीन बाबू राधेश्यामजी: तीन विवाह का योग
15 लग्न, द्वितीय या सप्तम में पाप ग्रह और सप्तमेश नीच तीन
16 सप्तमेश और एकादशेश एक साथ या अन्योन्य दृष्टि बहुजाया योग
17 नवमेश सप्तम स्थान में और सप्तमेश चतुर्थ स्थान में बहुजाया योग
18 चंद्रमा और शुक्र सप्तम में कई स्त्रियों का योग
19 बृहस्पति मित्र नवांश में; उच्च नवांश में एक; कई
20 दशमेश और उसका नवांशेश शनि के साथ और षष्ठेश दृष्ट बहु-दारा योग
21 लग्नेश, सप्तमेश, चंद्र और शुक्र उच्च के बहु-स्त्री योग
22 सप्तमेश बलवान, उच्च या वक्री होकर लग्न में बहु-स्त्री योग महाराजाधिराज दरभंगा: बृहस्पति वक्री होकर लग्न में, दो विवाह
23 बलवान बुध लग्न से दशम में और चंद्रमा तृतीय या सप्तम में स्त्रियों से घिरा रहता है
24 द्वितीयेश और द्वादशेश तृतीय स्थान में और पाप दृष्ट बहुजाया योग
25 सप्तमेश केंद्र या त्रिकोण में और उच्च वर्ग का बहुजाया योग
26 सप्तमेश और नवमेश एक-दूसरे के स्थान में; सप्तमेश और एकादशेश परस्पर दृष्टि या एक साथ स्थित, पापग्रहों की दृष्टि में बहुजाया योग; बहु-स्त्री योग
27 लग्नेश और सप्तमेश द्विस्वभाव राशि में, चंद्रमा तथा शुक्र द्विस्वभाव राशि में दो स्त्रियों का योग
28 सप्तम स्थान में शुभग्रह और पापग्रह, सप्तमेश निर्बल दूसरा विवाह
29 सप्तमेश और द्वितीयेश का युति, पापग्रह की दृष्टि दो विवाह
30 शुक्र और सप्तमेश नीच राशि में, पापग्रह की दृष्टि दूसरा विवाह/अधिक स्त्रियाँ
31 लग्नेश, सप्तमेश, चंद्रमा और शुक्र बलवान स्त्रियों का विशेष साथ
32 द्वादशेश, सप्तमेश और चंद्रमा का युति, शनि/राहु की दृष्टि दो या अधिक विवाह
33 सप्तम स्थान में सूर्य और मंगल, सप्तमेश निर्बल दूसरा विवाह
34 द्वितीय स्थान, सप्तम स्थान और शुक्र पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि तीन या अधिक विवाह
35 सप्तम स्थान में शुभग्रह, सप्तमेश केंद्र या त्रिकोण में एक विवाह
36 सप्तमेश, लग्नेश और चंद्रमा द्विस्वभाव राशि में, शुभग्रहों की दृष्टि दो विवाह

स्त्री-संख्या विचार – कुंडली विश्लेषण (Forts.)

(37) सप्तमेश का छठे, आठवें या बारहवें भाव में जाना (7th House Lord in 6th, 8th, or 12th House)

  • यदि सप्तमेश छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो, तो जातक के एक से अधिक विवाह होने की संभावना बनती है।
  • व्याख्या: सप्तमेश का इन भावों में जाना वैवाहिक जीवन में बाधाओं, अलगाव या हानि का संकेत देता है, जिसके परिणामस्वरूप पुनर्विवाह की स्थिति बन सकती है।

(38) सप्तम भाव में अनेक ग्रहों का होना (Multiple Planets in the 7th House)

  • यदि सप्तम भाव में कई ग्रह (तीन या अधिक) स्थित हों, तो जातक के कई विवाह होने की संभावना होती है।
  • व्याख्या: सप्तम भाव में अनेक ग्रहों की उपस्थिति वैवाहिक जीवन में अस्थिरता और परिवर्तनशीलता को दर्शाती है, जिससे कई विवाहों की संभावना बनती है।

(39) सप्तमेश का पापकर्तरी योग में होना (7th House Lord in Papakartari Yoga)

  • यदि सप्तमेश पापकर्तरी योग में हो, अर्थात उसके दोनों ओर पाप ग्रह स्थित हों, तो जातक के विवाह में बाधाएं आती हैं और पुनर्विवाह की संभावना बनती है।
  • व्याख्या: पापकर्तरी योग में सप्तमेश का होना वैवाहिक जीवन में कष्ट और बाधाओं का सूचक है, जो तलाक या अलगाव का कारण बन सकता है, जिसके परिणामस्वरूप दूसरा विवाह हो सकता है।

(40) सप्तमेश और अष्टमेश का संबंध (Connection between 7th and 8th House Lords)

  • यदि सप्तमेश और अष्टमेश का आपस में संबंध हो, अर्थात वे एक साथ हों या एक-दूसरे को देखते हों, तो जातक की पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरा विवाह होने की संभावना होती है।
  • व्याख्या: अष्टमेश मृत्यु और हानि का कारक होता है, और सप्तमेश के साथ उसका संबंध पहली पत्नी के लिए अरिष्ट का संकेत देता है।

(41) सप्तम भाव में राहु या केतु का होना (Rahu or Ketu in the 7th House)

  • यदि सप्तम भाव में राहु या केतु स्थित हो और सप्तमेश कमजोर हो, तो जातक के विवाह में बाधाएं आती हैं और तलाक या अलगाव की संभावना बनती है।
  • व्याख्या: राहु और केतु छाया ग्रह हैं जो अलगाव और अस्थिरता का कारक होते हैं। सप्तम भाव में उनकी स्थिति वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल ला सकती है।

(42) मंगल दोष (Mangal Dosha)

  • यदि कुंडली में मंगल लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित हो, तो इसे मंगल दोष कहा जाता है। यह दोष वैवाहिक जीवन में कलह और अलगाव का कारण बन सकता है, जिसके परिणामस्वरूप पुनर्विवाह की संभावना बनती है।
  • व्याख्या: मंगल एक क्रूर ग्रह है जो आक्रामकता और विवाद का कारक होता है। उपरोक्त भावों में इसकी स्थिति वैवाहिक जीवन में नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है।

(43) नवांश कुंडली में सप्तमेश की स्थिति (Position of 7th Lord in Navamsa Chart)

  • नवांश कुंडली में सप्तमेश की स्थिति भी विवाह और वैवाहिक जीवन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देती है। यदि नवांश कुंडली में सप्तमेश कमजोर या पीड़ित हो, तो जातक के एक से अधिक विवाह होने की संभावना बनती है।
  • व्याख्या: नवांश कुंडली विवाह और वैवाहिक जीवन का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए देखी जाती है। इसमें सप्तमेश की स्थिति वैवाहिक जीवन की स्थिरता और सुख को दर्शाती है।

स्त्री-कुल का ज्ञान (Knowledge of Wife’s Family)

ज्योतिष शास्त्र में केवल जातक के विवाह और वैवाहिक जीवन का ही विचार नहीं किया जाता, बल्कि पत्नी के कुल, परिवार और सामाजिक स्तर का भी विश्लेषण किया जाता है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण योग दिए गए हैं:

1. सप्तमेश का बल (Strength of the 7th House Lord)

  • शुभ परिणाम: यदि सप्तमेश बली हो, तो जातक का विवाह श्रेष्ठ धनी कुल में होता है और कन्या रूपवती होती है।
  • विपरीत परिणाम: यदि सप्तमेश निर्बल हो, तो इसके विपरीत फल होता है, अर्थात विवाह निम्न कुल की कन्या से हो सकता है।

व्याख्या: सप्तमेश का बल पत्नी के परिवार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को दर्शाता है।

2. सप्तमेश का शुभ नवांश और शुभ ग्रहों के साथ संबंध (7th House Lord in a Benefic Navamsa with Benefic Aspects)

  • शुभ योग: यदि लग्नेश से सप्तमेश बली हो, और सप्तमेश शुभ नवांश में हो, या उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, या सप्तमेश उच्च राशि में हो, तो जातक की पत्नी श्रेष्ठ जाति और श्रेष्ठ कुल-मर्यादा की कन्या होती है।

व्याख्या: शुभ ग्रहों का प्रभाव और सप्तमेश का शुभ नवांश में होना पत्नी के उत्तम चरित्र और अच्छे परिवार से होने का संकेत देता है।

3. सप्तमेश का बल और उच्च ग्रहों के साथ स्थिति (Strength of the 7th House Lord and its Position with Benefic Planets)

  • विशिष्ट योग: यदि लग्नेश सप्तमेश से बली हो और सप्तमेश उच्चस्थ या शुभ ग्रहों के साथ हो, और वह केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हो, तो जातक अपनी पत्नी से उच्च कुल का होगा।

व्याख्या: यह योग दर्शाता है कि जातक का सामाजिक स्तर पत्नी के परिवार से ऊंचा होगा।

4. सप्तमेश का दुर्बल होना (Weak 7th House Lord)

  • अवसर: यदि सप्तमेश लग्नेश से कम बल रखता हो, और यदि सप्तमेश अस्त हो, या मित्र गृह में हो, या नवांश में नीच राशि का हो, तो जातक का विवाह अपने से नीच कुल की कन्या से होता है।

व्याख्या: सप्तमेश का कमजोर होना पत्नी के परिवार की कमजोर आर्थिक या सामाजिक स्थिति का संकेत देता है।

5. लग्नेश का निर्बल होना और पापग्रहों का प्रभाव (Weak Ascendant Lord and Malefic Planetary Influence)

  • अवसर: यदि लग्नेश सप्तमेश से निर्बल हो, और यदि लग्नेश पापग्रहों के साथ हो, नीच नवांश में हो, या अष्टमस्थ हो, तो जातक अपनी पत्नी से नीच कुल और नीच व्यवहार का होगा।

व्याख्या: लग्नेश का कमजोर होना और पाप ग्रहों का प्रभाव जातक के स्वयं के कमजोर व्यक्तित्व और सामाजिक स्तर को दर्शाता है।

6. उपपद और द्वितीय स्थान का स्वामी (Upapada and the 2nd House Lord)

  • शुभ परिणाम: यदि उपपद से द्वितीय स्थान का स्वामी उच्च राशि में स्थित हो, तो उच्च कुल की स्त्री मिलती है।
  • विपरीत परिणाम: यदि वह नीच राशि में स्थित हो, तो नीच कुल की स्त्री मिलती है।

व्याख्या: उपपद से द्वितीय स्थान का स्वामी पत्नी के परिवार की आर्थिक स्थिति को दर्शाता है।

विवाह-समय विचार

ज्योतिष शास्त्र में विवाह का समय जानना एक महत्वपूर्ण विषय माना जाता है। हर व्यक्ति के जीवन में विवाह एक अहम पड़ाव होता है, और इसलिए इसका सही समय जानना हर कोई चाहता है। इस लेख में हम विभिन्न ज्योतिषीय योगों और सिद्धांतों का अध्ययन करेंगे जो विवाह का समय निर्धारित करने में सहायक होते हैं।

1. प्रस्तावना (Introduction)

ज्योतिष शास्त्र में विवाह का समय जानना एक महत्वपूर्ण विषय माना जाता है। हर व्यक्ति के जीवन में विवाह एक अहम पड़ाव होता है, और इसलिए इसका सही समय जानना हर कोई चाहता है। इस लेख में हम विभिन्न ज्योतिषीय योगों और सिद्धांतों का अध्ययन करेंगे जो विवाह का समय निर्धारित करने में सहायक होते हैं।

विवाह समय जानने का महत्व:

  • सही समय पर विवाह होने से वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।
  • विवाह के लिए उचित समय का ज्ञान, जीवन को योजनाबद्ध तरीके से जीने में मदद करता है।
  • ज्योतिषीय योगों के आधार पर विवाह का समय जानकर, संभावित बाधाओं से बचा जा सकता है।

2. मुख्य बिंदु (Main Points)

विवाह का समय निर्धारित करते समय कुछ महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है:

  • देश, काल और सामाजिक परिस्थितियों का ध्यान: विवाह का समय निकालते समय जातक के देश, काल (समय) और सामाजिक रीति-रिवाजों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। जो योग एक देश या समाज के लिए उपयुक्त हो, वह दूसरे के लिए अनुपयुक्त हो सकता है।
  • ज्योतिष: एक अनुमान शास्त्र: यह हमेशा याद रखना चाहिए कि ज्योतिष एक अनुमान शास्त्र है। इसमें सटीकता की संभावना कम और अनुमान की अधिक होती है। अतः ज्योतिषी को अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग कर फल का विचार करना चाहिए।
  • जातक की विवाह योग्यता और विवाह संख्या: विवाह का समय निकालते समय, सबसे पहले यह देखना चाहिए कि जातक विवाह योग्य है या नहीं। कुंडली में विवाह के योग हैं या नहीं, और यदि हैं तो कितने विवाह संभव हैं, यह भी देखना आवश्यक है।

3. विवाह-समय निर्धारण के विभिन्न तरीके (Methods for Determining Marriage Time)

यहाँ हम विवाह का समय निर्धारित करने के लिए 17 विभिन्न ज्योतिषीय तरीकों का विस्तार से वर्णन करेंगे:

1. लग्नेश और सप्तमेश का योग (Conjunction of Lord of Ascendant and 7th House):

सूत्र: लग्नेश (लग्न का स्वामी) और सप्तमेश (सप्तम भाव का स्वामी) के स्फुट (डिग्री) को जोड़ने से जो राश्यादि (राशि, अंश, कला) प्राप्त होती है, उस राश्यादि में जब गोचर का बृहस्पति आता है, तो उस समय जातक का विवाह संभव होता है।

उदाहरण: यदि लग्नेश का स्फुट 2।10।20 (2 राशि, 10 अंश, 20 कला) है और सप्तमेश का स्फुट 5।20।30 है, तो उनका योग 8।0।50 होगा। अब जब गोचर का बृहस्पति इस राशि (धनु) में आएगा, तो विवाह का योग बनेगा।

टिप्पणी: यह योग अनेक बार आएगा, इसलिए देश, काल और पात्र का विचार अवश्य करें।

2. जन्मकालीन चंद्रमा और अष्टमेश का योग (Conjunction of Natal Moon and Lord of 8th House):

सूत्र: जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि में स्थित हो, उस राशि के स्वामी के स्फुट को अष्टमेश (अष्टम भाव के स्वामी) के स्फुट में जोड़ने से जो राश्यादि प्राप्त होती है, उस राश्यादि में जब गोचर का बृहस्पति आता है, तो उस समय विवाह होने की संभावना होती है।

उदाहरण: यदि जन्मकालीन चंद्रमा वृषभ राशि में है (स्वामी शुक्र) और शुक्र का स्फुट 3।15।10 है और अष्टमेश मंगल का स्फुट 1।25।40 है, तो उनका योग 5।10।50 होगा। जब गोचर का बृहस्पति इस राशि (कन्या) में आएगा, तो विवाह का योग बनेगा।

3. सप्तमेश, नवांश और दशा (7th Lord, Navamsa and Dasha):

सूत्र: सप्तमेश ग्रह जिस राशि में और जिस नवांश में स्थित हो, उन दोनों के स्वामी ग्रहों में से जो ग्रह अधिक बली हो, उस ग्रह की दशा में जब गोचर का बृहस्पति सप्तमेश स्थित राशि के त्रिकोण (1, 5, 9 भाव) में जाता है, तो विवाह संभव होता है। यदि सप्तमेश जिस राशि में बैठा हो उस राशि से त्रिकोण में (अथवा सप्तमेश जिस नवांश का हो उस नवांश से त्रिकोण में) जव बृहस्पति जाता है और वह समय यदि ऊपर लिखी हुई दशा के अन्तर में पड़ता हो तो विवाह सम्भव होता है।

उदाहरण: यदि सप्तमेश बुध मिथुन राशि और कर्क नवांश में है, तो मिथुन का स्वामी बुध और कर्क का स्वामी चंद्रमा हुआ। यदि चंद्रमा अधिक बली है, तो चंद्रमा की दशा में जब गोचर का बृहस्पति मिथुन (सप्तमेश स्थित राशि) से त्रिकोण – मिथुन, तुला या कुंभ राशि में जाएगा, तो विवाह का योग बनेगा।

4. शुक्र, चंद्रमा और बृहस्पति का योग (Conjunction of Venus, Moon and Jupiter):

सूत्र: शुक्र और चंद्रमा में से जो ग्रह अधिक बली हो, उस ग्रह की महादशा में जब बृहस्पति का उपर्युक्त गोचर (पिछले बिंदुओं में वर्णित) होता है, तो उस समय विवाह का योग बनता है।

उदाहरण: यदि शुक्र अधिक बली है, तो शुक्र की महादशा में जब गोचर का बृहस्पति विवाह सूचक राशियों (जैसे सूत्र 1, 2, 3 में वर्णित) में भ्रमण करेगा, तो विवाह का योग बनेगा।

5. फलदीपिका के अनुसार (According to Phaldeepika):

  • 5.1 लग्नेश का गोचर (Transit of Lord of Ascendant): जब लग्नेश गोचरवश सप्तम भाव में स्थित राशि में जाता है, तो विवाह का योग बनता है।
  • 5.2 शुक्र/सप्तमेश का गोचर (Transit of Venus/7th Lord): जब गोचर का शुक्र अथवा सप्तमेश लग्नेश की राशि या लग्नेश के नवांश से त्रिकोण में जाता है, तो विवाह का योग बनता है।
  • 5.3 सप्तमस्थ ग्रह की दशा (Dasha of Planet in 7th House): सप्तम भाव में स्थित ग्रह या सप्तम भाव पर दृष्टि डालने वाले ग्रह की दशा में विवाह संभव होता है।

6. सप्तमेश, द्वितीयेश, नवमेश, दशमेश (7th Lord, 2nd Lord, 9th Lord, 10th Lord):

  • 6.1 सप्तमेश का शुक्र के साथ होना (7th Lord with Venus): यदि सप्तमेश शुक्र ग्रह के साथ युति (बैठा) कर रहा हो, तो सप्तमेश की दशा या अंतरदशा में विवाह संभव होता है।
  • 6.2 द्वितीयेश की भूमिका (Role of 2nd Lord): यदि सप्तमेश और शुक्र का योग किसी कारणवश विवाह कराने में असमर्थ हो, तो द्वितीयेश (दूसरे भाव का स्वामी) जिस राशि में स्थित हो, उस राशि के स्वामी की दशा या अंतरदशा में विवाह संभव होता है।
  • 6.3 नवमेश और दशमेश की भूमिका (Role of 9th and 10th Lord): यदि द्वितीयेश का योग भी विवाह कराने में असमर्थ हो, तो नवमेश (नवम भाव का स्वामी) और दशमेश (दशम भाव का स्वामी) की दशा या अंतरदशा में विवाह संभव होता है।
  • 6.4 सप्तम स्थान में स्थित ग्रहों की भूमिका (Role of Planets in 7th House): यदि नवमेश और दशमेश का योग भी विवाह कराने में असमर्थ हो, तो सप्तमेश के साथ बैठे ग्रह या सप्तम स्थान में स्थित ग्रहों की दशा-अंतरदशा में विवाह होना चाहिए।

7. शुक्र, चंद्रमा और लग्न से सप्तमाधिपति (Venus, Moon and 7th Lord from Ascendant):

सूत्र: शुक्र, जन्मकालीन चंद्रमा और लग्न से सप्तम भाव के स्वामी की दशा में भी विवाह होना संभव होता है।

8. विवाह का समय दशा के प्रारंभ, मध्य या अंत में (Marriage Time at the Beginning, Middle or End of Dasha):

  • यदि विवाह सूचक दशा का स्वामी (दशेश) शुभ ग्रह हो और शुभ राशि में स्थित हो, तो दशा के प्रारंभ में ही विवाह होता है।
  • यदि दशेश शुभ ग्रह हो परंतु पाप राशि में स्थित हो, तो दशा के मध्य में विवाह होता है।
  • यदि दशेश पाप ग्रह हो और पाप राशि में स्थित हो, तो दशा के अंत में विवाह होता है।
  • यदि दशेश पाप ग्रह हो परंतु शुभ राशि में स्थित हो और उसके साथ शुभ ग्रह भी बैठा हो, तो दशा के किसी भी समय में विवाह हो सकता है।

9. लग्नेश के नवांश का प्रभाव (Influence of Navamsa of Lord of Ascendant):

सूत्र: लग्नेश जिस नवांश में स्थित हो, उस नवांश का स्वामी ग्रह जिस राशि में स्थित हो, उस राशि से द्वितीय स्थान में जब गोचर का चंद्रमा और बृहस्पति एक साथ आते हैं, तो विवाह होने की संभावना होती है।

उदाहरण: यदि लग्नेश सूर्य सिंह राशि में है और सिंह नवांश में है, तो नवांश का स्वामी सूर्य ही होगा। अब मान लीजिए कि सूर्य कुंडली में धनु राशि में स्थित है। तो धनु से द्वितीय मकर राशि में जब गोचर के चंद्रमा और बृहस्पति आएंगे, तब विवाह का योग बनेगा।

10. दशमेश, शुक्र और बृहस्पति का गोचर (Transit of 10th Lord, Venus and Jupiter):

सूत्र: गोचर का बृहस्पति जब दशमेश (दशम भाव के स्वामी) अथवा शुक्र जिस राशि में स्थित हो, उस राशि में जाता है, तो विवाह संभव होता है।

11. केंद्र में बृहस्पति और चंद्रमा (Jupiter and Moon in Kendra):

सूत्र: जब गोचर के बृहस्पति और चंद्रमा जातक के जन्म लग्न से केंद्र (1, 4, 7, 10 भाव) में आते हैं, तब विवाह का समय होता है।

12. सप्तमस्थ राशि और विवाह का वर्ष (Sign in 7th House and Year of Marriage):

सूत्र: सप्तम भाव में स्थित राशि की संख्या (मेष=1, वृष=2, मिथुन=3, …, मीन=12) में 8 जोड़ने से जो संख्या प्राप्त होती है, उस संख्या वाले वर्ष में विवाह होने की संभावना होती है।

उदाहरण: यदि सप्तम भाव में मिथुन राशि (संख्या 3) है, तो 3+8=11, अतः 11वें वर्ष में विवाह होने की संभावना होगी।

13. कम उम्र में विवाह के योग (Combinations for Early Marriage):

  • यदि लग्नेश और सप्तमेश एक-दूसरे के निकट स्थित हों।
  • यदि लग्न के समीप या सप्तम भाव के समीप कोई शुभ ग्रह स्थित हो।
  • यदि लग्न, द्वितीय या सप्तम भाव में कोई शुभ ग्रह स्थित हो और वह शुभ वर्ग (जैसे स्वराशि, मित्र राशि, उच्च राशि) का भी हो।
  • यदि लग्नेश, द्वितीयेश और सप्तमेश, शुभ ग्रह के साथ युति कर रहे हों।
  • यदि सप्तमाधिपति बलवान होकर केंद्र (1, 4, 7, 10) या त्रिकोण (1, 5, 9) भाव में स्थित हो।

14. अधिक उम्र में विवाह के योग (Combinations for Late Marriage):

  • यदि सप्तमेश पाप ग्रह के साथ त्रिकोण (1, 5, 9) भाव में स्थित हो और शुक्र भी पाप ग्रह के साथ स्थित हो, तथा द्वितीयेश दशम भाव में स्थित हो।
  • यदि लग्न, द्वितीय, सप्तम और शुक्र, पाप ग्रहों से पीड़ित (दृष्ट या युत) हों।

15. सप्तमाधिपति बलवान होकर केंद्र/त्रिकोण में (Strong 7th Lord in Kendra/Trikona):

योग: यदि सप्तम भाव का स्वामी बलवान होकर केंद्र या त्रिकोण भाव में स्थित हो, तो जातक का विवाह कम उम्र (बाल्यकाल) में ही हो जाता है।

16. सप्तमेश पाप ग्रह के साथ त्रिकोण में, शुक्र पाप ग्रह के साथ, द्वितीयेश दशम में (7th Lord with Malefic in Trikona, Venus with Malefic, 2nd Lord in 10th House):

योग: यदि सप्तमेश पाप ग्रह के साथ त्रिकोण भाव में स्थित हो, शुक्र भी पाप ग्रह के साथ हो और द्वितीयेश दशम भाव में स्थित हो, तो जातक का विवाह अधिक उम्र में होता है।

17. लग्न, द्वितीय, सप्तम और शुक्र की स्थिति (Condition of Ascendant, 2nd House, 7th House and Venus):

निष्कर्ष: लग्न, द्वितीय भाव, सप्तम भाव और शुक्र ग्रह, विवाह संबंधी मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि ये शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हों, तो विवाह कम उम्र में और सुखमय होता है। इसके विपरीत, यदि ये पीड़ित हों, तो विवाह में विलंब और वैवाहिक जीवन में परेशानियां आती हैं।

4. निष्कर्ष (Conclusion)

विवाह का समय निश्चित करते समय इन सभी योगों का सावधानीपूर्वक और सामूहिक रूप से विचार करना चाहिए। किसी एक योग के आधार पर निर्णय लेना उचित नहीं होगा। ज्योतिषी को जातक की कुंडली का पूर्ण विश्लेषण, देश-काल-परिस्थिति का ज्ञान और अपनी बुद्धि-विवेक का प्रयोग करके ही विवाह का समय निर्धारित करना चाहिए।

5. उदाहरण (Examples)

उदाहरण कुंडली 96 (Example Horoscope 96):

  • इस कुंडली के अनुसार बुध, बृहस्पति, रवि, शुक्र और राहु की दशा/अंतरदशा में विवाह हो सकता है।
  • जातक का पहला विवाह बुध की महादशा में राहु की अंतरदशा में और दूसरा विवाह शुक्र की महादशा में राहु की अंतरदशा में हुआ था।

महात्मा गांधी की कुंडली (39) (Mahatma Gandhi’s Horoscope 39):

  • इनकी कुंडली के अनुसार शुक्र की दशा/अंतरदशा में विवाह संभव था।
  • उनका विवाह 13 वर्ष की आयु में शुक्र की महादशा में हुआ था।

तिलक महाराज की कुंडली (26) (Tilak Maharaj’s Horoscope 26):

  • इनकी कुंडली के अनुसार चंद्रमा, बृहस्पति, मंगल या बुध की दशा/अंतरदशा में विवाह संभव था।
  • उनका विवाह 15 वर्ष की आयु में बुध की महादशा में हुआ था (सन् 1871 या 1873, इसमें कुछ मतभेद है)।

पंडित जवाहरलाल नेहरू की कुंडली (49) (Pandit Jawaharlal Nehru’s Horoscope 49):

  • इनकी कुंडली के अनुसार मंगल या बृहस्पति की दशा/अंतरदशा में विवाह संभव था।
  • उनका विवाह 27 वर्ष की आयु में शुक्र की महादशा में मंगल की अंतरदशा में हुआ था।

उदाहरण कुंडली (Example Horoscope):

  • इस कुंडली में सप्तमेश बुध है।
  • जातक का विवाह बुध की महादशा में हुआ था।

यह विस्तृत लेख “विवाह-समय विचार” विषय पर प्रकाश डालता है और ज्योतिष प्रेमियों, विद्यार्थियों और जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी जानकारी प्रदान करता है।

विवाह की दिशा

धा-१४५ (१) शुक्र से सप्तमेश की जो दिशा हो उसी दिशा में प्रायः कन्या का घर होता है ।

(२) यदि सप्तम स्थान में ग्रह हो तो उस स्थान की राशि की जो दिशा हो अथवा सप्तम स्थान पर जिन ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो उन ग्रहों की राशिस्थ-दिशाओं में कन्या का घर होता है। यदि स्थिर राशि हो तो कन्या का घर वर के घर से विशेष दूर न होगा और यदि चर राशि हो तो त्रर के घर से कन्या का घर दूर होगा।

स्त्री के गुण-दोष

 यह नीति की बात है और सत्य भी है कि जिसको स्त्री शुनगुणसम्पन्ना होती है उसे गृहस्थाश्रम हो में स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है । अतएव पाठकगण इस विषय को ध्यान पूर्वक मनन करें।

  1. लग्न से सप्तम स्थान एवं चन्द्र लग्न से सप्तम स्थान से स्त्रीकामातुरता, स्त्री- सम्भोग-शक्ति का बोत्र होता है। लग्न से सप्तमेश, चन्द्रमा से सप्तमेश और शुक्र से भी इन सब विनयों का विचार होता है। इस कारण देखना होगा कि कुण्डली में लग्न से सप्तमस्थान, चन्द्रलग्न से सप्तम स्थान और उन दोनों के स्वामियों और शुक्र की क्या स्थिति है। अर्थात् इन सत्र पर पापग्रह की या शुभग्रह की दृष्टि है, अथवा ये सबके सब या इनमें से कोई पापमध्यगत तो नहीं है। इनमें से सब या किसी के साथ शुभग्रह है या पापग्रह। लेवरु का अनुभव है यदि विस्तार पूर्वक इन सब शुभ और अशुभ लक्षणों का विवरण करके एक चक्र (Chart) बनाया जाय तो उस चक्र के अनुसार फल कहने में सुविधा होगी।
  2. इन्हीं सत्र नियमों और अन्य नियमों के अनुसार विद्वानों ने ग्रंथान्तर में कतिपय योग बतलाया है जिसका यहाँ उल्लेख किया जाता है। यदि शुक्र चर राशि गत हो, बृहस्पति सप्तमस्थ हो और लग्नेश बली हो तो उस जातक की स्त्री पतिव्रता, सुन्दरी और प्रेम करने वाली होनी है।

    जदाहरण कुंडली ९६ में तुला का शुक्र, चर राशि में है, बृहस्पति सप्तमस्थ है और लग्नेश भी वही है। इस जातक की स्त्री उपर्युक्त गुणसम्पन्ना है। परन्तु स्मरण रहे कि कुछ पापग्रहों का भी आक्रमण है। इस कारण यद्यपि आदर्श स्त्री नहीं है तौ भी सराहने योग्य है।

  3. यदि सप्तमेश, बृहस्पति के साथ हो अथवा बृहस्पति से दृष्ट हो अथवा शुक्र, बृहस्पति के साथ हो अथवा शुक्र पर बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि पड़ती हो तो स्त्री उपर्युक्त गुणसम्पन्ना होती हुई वह अपने पति के सुख दुःख पर सर्वदा ध्यान देती रहेगी । उदाहरण कुंडली में सप्तमेश बुध पर बृहस्पति की पूर्णदृष्टि है और सप्तमेश स्त्री कारक शुक्र के साथ है तथा उस पर बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि है। महात्मा जी की कुंडली ३९ में शुक्र पर बृहरपति की पूर्ण दृष्टि है। इस कारण श्रीमती कस्तूरीबाई ऊपर लिखे हुए गुणों से सम्पन्ना हैं जो सभी जानते हैं। पुनः पंडित जवाहिर लाल जी की कुंडली ४९ में सप्तमेश शनि पर बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि है। इस कारण इनकी स्त्री सर्वगुणसम्पन्ना हैं।
  4. यदि सप्तमेश बृहस्पति हो और उस पर शुक्र और बुध की दृष्टि हो, अथवा बृहस्पति सप्तमस्थ हो और वह पापग्रह की दृष्टि वा योग से वर्जित हो तो उसकी स्त्री भी पतिव्रता, सुन्दरी और चित्त को आकर्षित करने वाली होती है। देखो महात्मा जी की कुंडली ३९। सप्तमेश बृहस्पति है और उस पर शुक्र (बली) एवं बुध की पूर्ण दृष्टि है। मंगल की भी दृष्टि है परन्तु द्वितीयस्थ मंगल निष्फल है। इसी कारण श्रीमती कस्तूरीबाई महात्माजी की बीभत्स खुली समालोचनाओं पर भी कठिन से कठिन परिस्थिति में अखंड पातिव्रत धर्म की परीक्षाओं में सदा उत्तीर्ण होती रही हैं।
  5. यदि सप्तमेश केन्द्र में बैठा हो और उस के साथ शुभग्रह हो, अथवा वह केन्द्र- वर्ती सप्तमेश शुभनवांश वा शुभ राशिगत हो तो स्त्री पतिव्रता होती है। देखो कुंडली ५० राजा बहादुर अमावाँ की। सप्तमेश बुध, उच्च, केन्द्रस्थ और अपने नवांश का है। श्रीमती रानी साहिबा एक आदर्श एवं अति सराहनीया पतिव्रता स्त्री हैं।
  6. यदि सप्तमेश शुभग्रह के साथ हो अथवा उस पर शुभग्रह की दृष्टि हो तो जातक का स्वभाव विनीत और नम्र होगा, वह धनी और अधिकारी होगा और राजकीय पद में उसकी अच्छी स्थिति होगी तथा उसकी स्त्री प्रेम करने वाली और चित्त को आकर्षित करने वाली

    होगी। देखो कुंडली ३९, ४९, ५० और ९६ ।

  7. यदि सप्तम स्थान पर बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि हो तो उस की स्त्री दयालु, सुन्दरी और सुचरित्रवती होती है। यदि सप्तम स्थान पर पापग्रह की पूर्ण दृष्टि हो तो उसकी स्त्री झगड़ालू और दुःख देने वाली होती है। यदि एक ही कुंडली में कई तरह के योग पाये जायें तो पाठक सावधानी पूर्वक अपनी बुद्धि की तराजू पर तौल कर अनुमान करेंगी। उदाहरण कुंडली में सप्तम स्थान पर शनि की पूर्ण दृष्टि है (और बू. भी सप्तमस्थ है); इस कारण इस जातक की स्त्री में किंचित झगड़ालू होने का दोष अवश्य है। देखो कुंडली ८ श्रीरामानुजाचाय्यं की। शनि सप्तमस्थ है और किसी शुभ ग्रह से दृष्ट वा युक्त नहीं है। इनकी स्त्री झगड़ालू भी थी और पतिदेव को बराबर अप्रसन्न रखती थी पर दुष्टा न थी क्योंकि शनि स्वगृही है।
  8. यदि लग्नाधिपति सप्तम में अथवा सप्तमाधिपति पंचम में रहे तो जातक अपनी स्त्री के मतानुसार चलने वाला होता है अर्थात् स्त्री का आज्ञानुयायी होता है।
  9. लग्न में राहु, केतु के रहने से स्त्री स्वामी के वशीभूत रहती है।
  10. यदि सप्तमेश शुभ ग्रह के साथ हो तो स्त्री अच्छी मिलती है। इसी प्रकार यदि सप्तमेश उच्चस्थ, स्वगृही, मित्रगृही, हो तौ भी उसकी स्त्री सुशीला होती है। यदि सप्तमेश अथवा शुक्र पर बृहस्पति और बुध की दृष्टि पड़ती हो तो स्त्री पतिव्रता होती है तथा बृहस्पति के भी सप्तम स्थान में रहने से स्त्री गुणवती होती है। यदि सप्तमेश केन्द्र में हो और उस पर शुभग्रह की दृष्टि हो, शुभराशिगत हो, अथवा शुभनव श का हो

    तो स्त्री पतिव्रता होती है।

  11. यदि शुक्र, उच्च या अच्छे नवांश का हो, अथवा सप्तमेश बृहस्पति के साथ हो, अथवा बृहस्पति की सप्तमेश पर दृष्टि पड़ती हो तो स्त्री पतिव्रता और प्रेम करने वाली होती है। देखो कुंडली ३९ । शुक्र अति उत्तम वर्ग का है ।
  12. यदि सप्तम भाव का स्वामी सूर्य्य हो और उसके साथ कोई शुभ ग्रह हो, अथवा उस पर किसी शुभग्रह की दृष्टि हो, अथवा वह सूर्य्य शुभराशिगत हो अथवा शुभ नवांश का हो परन्तु वह लग्नेश का मित्र हो तो ऐसे स्थान में उसकी स्त्री आज्ञाकारिणी और सेवा करने वाली होती है।
  13. यदि सप्तम भाव का स्वामी चन्द्रमा हो और उसके साथ पाप ग्रह बैठा हो अथवा उस पर पापग्रह की दृष्टि हो, अथवा वह पापराशिगत हो, अथवा पाप नवांश में हो तो उमकी स्त्री टेढ़े स्वभाव की और चित्त से कठोर होती है। यदि वही चन्द्रमा, शुक्र के साथ होकर शुभ-राशिगत हो शुभनवांश का हो, मित्र-गृही हो, स्वगृही अथवा उच्च हो तो स्त्री दानशीला और मर्यादित रहती है।
  14. यदि सप्तम स्थान का स्वामी मंगल हो और वह नीच, शत्रुगृही, अस्तगत अथवा शत्रु-द्रेष्काण का हो तो उसकी स्त्रो कुल्टा और कुचरित्रा होती है। परन्तु यदि वैसा मंगल मित्रगृही, उच्च, शुभग्रह के साथ अथवा शुभ दृष्ट हो तो यद्यपि उसकी स्त्री निर्दयी होगी तथापि अपने पुरुष की आज्ञाकारिणी और प्रेम करने वाली होगी ।
  15. यदि सप्तमेश बुष हो और पाप ग्रह के साथ हो, अथवा नीचस्थ हो, अथवा शत्रुगृही हो, अथवा अस्त हो और अष्टम या द्वादश स्थानगत हो और पाप ग्रहों से घिरा हो, अथवा उस पर पाप ग्रह की दृष्टि पड़ती हो तो उस जातक की स्त्री अपने पुरुष की जान लेने वाली होती है और इसके विपरीत रहने से विपरीत फल होता है।
  16. यदि गुरु सप्तमेश और बली हो, अथवा मित्रगृही हो, अथवा उच्चस्थ हो, अथवा स्वगृही हो और गोपुरांश में हो तो जातक की स्त्री की सन्तान उत्तम होती है और स्त्री स्वयं अच्छे आचरण की एवं दानशीला होती है तथा धार्मिक विचारों से वार्ता करने वाली होती है।
  17. यदि शुक्र, सप्तमेश हो और पाप ग्रह के साथ हो, अथवा पापदृष्ट हो, अथवा वह शुक्र, नीच वा शत्रुनवांश का हो, अथवा पाप षष्ठांश में हो तो उसकी स्त्री कठोर चित्त वाली, कुर्मागणी और कुल्टा होती है।
  18. यदि शुक्र सप्तमेश हो और शुभ ग्रह के साथ हो, अथवा शुभ ग्रह के नवांश में हो, मित्रगृही हो तो उसकी पत्नी पुत्रवती, वाचाल और शुभचरित्रा होती है ।
  19. यदि शनि सप्तमेश हो, वह पाप ग्रह के साथ हो और नीच नवांश में हो, अथवा नीच राशिगत हो, अथवा पापग्रह के साथ शत्रुनवांश में हो और पाप ग्रह से दृष्ट हो तो उसकी स्त्री क्रूरा और कुल्टा होती है।
  20. यदि सप्तमेश शनि बलवान हो और उस पर शुभग्रह की दृष्टि हो तो उसकी स्त्री विनीत, सहायता करने वालीं और उत्तम प्रकृति की होती है। यदि उस शनि पर बृहस्पति की दृष्टि हो तो उसकी स्त्री ईश्वर-प्रेमी ब्राह्मण-सेवा मे निरत रहने वाली और ज्ञानवती होती है। देखो कुंडली ८ श्री रामानुजाचार्य्य जी की। शनि, सप्तमेश है पर स्वगृही और कुम्भ के नत्रांश का है और बृहस्पति की दृष्टिविम्ब के भीतर है। इस कारण इतकी स्त्री झगड़ालू एवं पतिदेव की परम अनुयायी न थी पर ईश्वर-प्रेमी और ब्राह्मण सेवा में निरत रहती थी ।
  21. यदि राहु अथवा केतु, सप्तमगत हो और उसके साथ पापग्रह हो, अथवा उस पर पापग्रह की दृष्टि हो तो उस जातक की स्त्री छोटे (ओछे) ख्याल की होती है। यदि वह राहु वा केतु, क्रूरनवांश का हो तो उसकी स्त्री अपने स्वामी पर विषप्रयोग करने वाली होती है और अपने को अपयश का भाजन बनाती तथा स्वयं दुःखी रहती है।
  22. यदि सप्तमेश किसी पापग्रह के साथ हो और सप्तम स्थान में कोई प्रापग्रह बैठा हो और सप्तमेश, पापनवांश में हो तो उसकी स्त्री निकम्मी एवं अभागिनी होती है।
  23. यदि सप्तमेश ६,८,१२ में बैठा हो, शुक्र निर्बल हो तो उसकी स्त्री अच्छी

    नहीं होती है। एवं यदि सप्तमेश और शुक्र नीचस्थ हो और शुभदृष्टि से वजित हो तो उस जातक की स्त्री निकम्मी होती है।

  24. यदि सप्तमेश के साथ कोई शुभग्रह हो और सप्तमस्थान में भी शुभग्रह हो और सप्तम स्थान पर तथा सप्तमेश पर शुभग्रह की दृष्टि हो तो स्त्री सुशीला होती है।
  25. इसी प्रकार यदि (१) सप्तमेश, दशमेश और शुक्र, शुभ नवांश का हो अथवा बली हो, (२) यदि शुक्र उच्च का हो अथवा शुभनवांश का हो, (३) अथवा यदि सप्तमेश बृहस्पति के साथ हो अथवा बृहस्पति की उस पर दृष्टि पड़ती हो अथवा (४) सप्तमेश पर शुक्र और सूर्य्य की दृष्टि पड़ती हो और बृहस्पति सप्तमस्थ हो तो ऐसे योग वाले जातक की स्त्री प्रिय पतिव्रता और सुलक्षणा होती है और उसके गृह में स्वर्ग का सा सुख प्राप्त होता है।
  26. यदि उपपद से द्वितीय स्थान शुभग्रह के षड़वर्ग का हो अर्थात् उस स्थान का स्पष्ट शुभ नवांश आदि में हो अथवा उपपद से द्वितीय स्थान पर शुभग्रह की दृष्टि हो अथवा शुभग्रह बैठा हो तो जातक की स्त्री रूपवती होती है।
  27. यह विषय ऐसा है कि अन्य कुंडलियों का प्रमाण देना उचित नहीं। फल विचरने के समय केवल इसी स्थान में नहीं किन्तु प्रत्येक भाव के विचार में. प्रत्येक बात के विचार में, ग्रहों की उत्कर्षता आदि पर विचार करके फल की उत्कर्षता कहनी होती है। इस विषय को समुचित स्थान में विशेष रूप से लिखा जायगा और जही नियम सर्वदा लागू होगा। अतः वह नियम स्मरण रखने योग्य है।

विवाह में विलंब या बाधा

कुछ विशेष ग्रह स्थितियां विवाह में विलंब या बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।

  • यदि सातवें भाव में शनि हो और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो, तो विवाह में विलंब होता है।
  • यदि सातवें भाव का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो और निर्बल हो, तो भी विवाह में बाधा आती है।
  • मंगल दोष (मंगल का लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में होना) भी विवाह में विलंब का कारण बनता है।
  • यदि शुक्र नीच राशि में हो, पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो, तो भी विवाह में विलंब होता है।

विवाह का समय

विवाह का समय निर्धारित करने के लिए दशा-अंतरदशा और गोचर का विश्लेषण आवश्यक है।

  • सप्तमेश, सप्तम भाव में स्थित ग्रह, या शुक्र की महादशा, अंतर्दशा या प्रत्यंतर दशा में विवाह हो सकता है।
  • जब गोचर में बृहस्पति सप्तम भाव, सप्तमेश या शुक्र से दृष्टि संबंध बना रहा हो, तब विवाह होने की संभावना बढ़ जाती है।
  • विवाह के समय लग्नेश और सप्तमेश का परस्पर संबंध शुभ होना चाहिए।

वैवाहिक सुख

सुखी वैवाहिक जीवन के लिए कुंडली में

कुछ विशेष योगों का होना आवश्यक है।

  • यदि सप्तमेश और लग्नेश परस्पर मित्र हों, तो वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।
  • यदि सप्तम भाव में शुभ ग्रह हों और सप्तमेश बलवान हो, तो भी वैवाहिक सुख प्राप्त होता है।
  • शुक्र यदि उच्च, स्वगृही, मित्रगृही या शुभ नवांश में हो, तो वैवाहिक जीवन में प्रेम और सौहार्द बना रहता है।
  • यदि सप्तम भाव, सप्तमेश और शुक्र पाप ग्रहों के प्रभाव से मुक्त हों, तो वैवाहिक जीवन में कलह नहीं होता।

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