प्रस्तावना

भारतीय ज्योतिष शास्त्र, जीवन के रहस्यों को समझने और भविष्य की संभावनाओं को जानने का एक प्राचीन और गहन विज्ञान है। जीवन के अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक, पुत्र प्राप्ति और उससे संबंधित सुख-दुःख, सदैव से ही मानव मन को आकर्षित करते रहे हैं। इस अध्याय में, हम ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांतों के आलोक में पुत्र से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विचार करेंगे। कुंडली में पुत्र का विचार कैसे करें, पुत्र प्राप्ति के योग, पुत्र से मिलने वाले सुख-दुःख, पुत्र प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करने वाले योग, और इन सबसे संबंधित अन्य महत्वपूर्ण विषयों का विस्तृत विवेचन इस अध्याय में किया जाएगा।


1. पुत्र का ज्योतिषीय विश्लेषण

ज्योतिष शास्त्र में, पुत्र का विश्लेषण मुख्य रूप से लग्न कुंडली, चंद्र कुंडली और जैमिनी सूत्र के आधार पर किया जाता है। आइए, इन तीनों पद्धतियों पर विस्तार से दृष्टि डालें:

1.1 लग्न कुंडली:

लग्न कुंडली, जातक के जन्म समय, जन्म स्थान और जन्म तिथि के आधार पर बनाई जाती है। इसमें, पंचम भाव को पुत्र का स्थान माना गया है। पंचम भाव, पंचमेश (पंचम भाव का स्वामी ग्रह) और पुत्र कारक ग्रह बृहस्पति का गहन विश्लेषण पुत्र से संबंधित विभिन्न पहलुओं, जैसे उसकी प्राप्ति, गुण, आयु, स्वास्थ्य, और उससे मिलने वाले सुख-दुःख का ज्ञान प्रदान करता है।

1.2 चंद्र कुंडली:

जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि में स्थित होता है, उसे जन्म राशि या चंद्र राशि कहते हैं। चंद्र कुंडली में, चंद्रमा से पंचम भाव को पुत्र का स्थान माना जाता है। चंद्र कुंडली से भी पुत्र के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

1.3 जैमिनी सूत्र:

महर्षि जैमिनी द्वारा रचित जैमिनी सूत्र, ज्योतिष शास्त्र की एक विशिष्ट पद्धति है। इसमें पुत्र का विचार निम्नलिखित चार स्थानों से किया जाता है:

  • उपपद से सप्तम स्थान से पंचम स्थान: उपपद, लग्न से द्वादश भाव के स्वामी द्वारा निर्धारित होता है। उपपद से सप्तम स्थान से पंचम स्थान पुत्र के विषय में जानकारी देता है।
  • उपपद की नवांश राशि से पंचम स्थान: उपपद जिस नवांश में स्थित हो, उस नवांश राशि से पंचम स्थान पुत्र के बारे में बताता है।
  • उपपद के सप्तम स्थान का स्वामी जिस राशि में हो, उससे पंचम स्थान: उपपद से सप्तम स्थान का स्वामी ग्रह जिस राशि में बैठा हो, उस राशि से पंचम स्थान पुत्र से संबंधित जानकारी प्रदान करता है।
  • उपपद से सप्तम स्थान के नवांश का स्वामी जिस स्थान में हो, उससे पंचम स्थान: उपपद से सप्तम स्थान के नवांश का स्वामी जिस राशि में स्थित हो, उससे पंचम स्थान पुत्र के विषय में बताता है।

इनके अतिरिक्त भी, पुत्र विचार की कुछ अन्य रीतियाँ ज्योतिष शास्त्र में प्रचलित हैं, परंतु उनकी जटिलता को देखते हुए, इस अध्याय में उनका वर्णन नहीं किया गया है।


2. पुत्र के सुख-दुःख का ज्योतिषीय दर्पण

कुंडली में पुत्र से मिलने वाले सुख-दुःख, उसके गुण, और उसके जीवन का विश्लेषण मुख्य रूप से सप्तमेश, नवमेश, पंचमेश और बृहस्पति ग्रह के आधार पर किया जाता है।

2.1 सप्तमेश:

सप्तम भाव पत्नी (जाया) का स्थान होता है। ज्योतिष शास्त्र मानता है कि पुत्र के गुण, उसकी पत्नी के गुणों से बहुत अधिक प्रभावित होते हैं। इसलिए, पुत्र के गुणादि के विचार में सप्तमेश (सप्तम भाव के स्वामी) का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

2.2 नवमेश:

नवम भाव को भाग्य स्थान माना जाता है। यह पंचम भाव (पुत्र स्थान) से पंचम भाव भी होता है, अर्थात पुत्र का पुत्र स्थान। इसलिए, पुत्र के भाग्य और उसके जीवन के समग्र विकास को समझने के लिए नवमेश (नवम भाव के स्वामी) का विश्लेषण आवश्यक होता है।

2.3 पंचमेश:

पंचम भाव, जैसा कि पहले बताया गया है, पुत्र स्थान है। इसलिए, पंचमेश (पंचम भाव के स्वामी) का विश्लेषण पुत्र से संबंधित सभी पहलुओं को जानने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

2.4 बृहस्पति:

बृहस्पति ग्रह को पुत्र कारक माना जाता है। कुंडली में बृहस्पति की स्थिति, बल, और उस पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण, पुत्र से संबंधित सुख-दुःख के विचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।


3. वीर्यबल: संतान उत्पत्ति की क्षमता

“फलदीपिका” नामक प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ में स्त्री और पुरुष की संतानोत्पत्ति-शक्ति (वीर्यबल) के विचार की विधि इस प्रकार बताई गई है:

3.1 स्त्री का वीर्यबल:

जन्मकालीन बृहस्पति, चंद्रमा और मंगल के स्फुटों (डिग्री) को जोड़ लें। यदि योगफल 12 राशियों (360 डिग्री) से अधिक हो, तो उसमें से 12 राशियाँ घटा दें। शेष बची राशि को देखें। यदि यह सम राशि (2, 4, 6, 8, 10, 12) हो और नवांश विषम राशि (1, 3, 5, 7, 9, 11) का हो, तो स्त्री की संतानोत्पत्ति-शक्ति अच्छी मानी जाती है।

इसके विपरीत, यदि राशि विषम हो और नवांश सम हो, या राशि सम हो और नवांश भी सम हो, तो स्त्री की जनन-शक्ति को दूषित माना जाता है। ऐसी स्थिति में, ज्योतिषीय उपाय, उपचार, और औषधि प्रयोग से संतान प्राप्ति की संभावना बनती है।

3.2 पुरुष का वीर्यबल:

जन्मकालीन सूर्य, शुक्र और बृहस्पति के स्फुटों को जोड़ लें। यदि योगफल विषम राशि में आए और नवांश भी विषम राशि का हो, तो पुरुष की संतानोत्पत्ति-शक्ति उत्तम मानी जाती है। इसके विपरीत, अर्थात योगफल सम राशि में हो और नवांश भी सम राशि का हो, तो पुरुष की संतानोत्पत्ति-शक्ति अच्छी नहीं मानी जाती।


4. पुत्र प्राप्ति के ज्योतिषीय योग

कुंडली में पुत्र प्राप्ति के अनेक योग बनते हैं। उनमें से कुछ प्रमुख योग इस प्रकार हैं:

  1. यदि पंचम भाव, पंचमेश या बृहस्पति शुभ ग्रहों से दृष्ट हों या उनके साथ युति में हों, तो पुत्र प्राप्ति की संभावना बनती है।
  2. यदि लग्नेश ( लग्न का स्वामी) पंचम भाव में स्थित हो और बृहस्पति ग्रह बलवान हो, तो पुत्र प्राप्ति का योग बनता है।
  3. यदि बलवान बृहस्पति लग्नेश से दृष्ट होकर पंचम स्थान में स्थित हो, तो पुत्र प्राप्ति निश्चित मानी जाती है।
  4. यदि केंद्र (1, 4, 7, 10 भाव) या त्रिकोण (1, 5, 9 भाव) का स्वामी कोई शुभ ग्रह हो और वह पंचम भाव में स्थित हो, तथा पंचमेश 6, 8, 12 भावों में न हो, पाप ग्रहों से युक्त न हो, अस्त न हो, नीच राशि में न हो, और शत्रु राशि में न हो, तो पुत्र सुख प्राप्त होता है।
  5. यदि पंचम स्थान में वृष, कर्क या तुला राशि हो, और वहां शुक्र या चंद्रमा बैठे हों, या उनकी दृष्टि पंचम भाव पर हो, और साथ ही किसी पाप ग्रह की दृष्टि या युति न हो, तो यह बहु-पुत्र योग बनता है। परंतु, यदि पंचम भाव पर शनि और मंगल की दृष्टि हो, तो यह योग अनिष्टकारी हो जाता है।
  6. यदि लग्न कुंडली या चंद्र कुंडली में पंचम स्थान पर कोई शुभ ग्रह बैठा हो, या उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि हो, या पंचम भाव का स्वामी अपनी ही राशि में स्थित होकर पंचम भाव को देख रहा हो, तो संतान योग बनता है।
  7. यदि पंचम से सप्तम भाव (अर्थात लग्न से एकादश भाव) में किसी शुभ ग्रह की राशि हो, या एकादश भाव के स्वामी के साथ कोई शुभ ग्रह बैठा हो, या एकादश भाव पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि हो, और वह ग्रह केंद्र या त्रिकोण में स्थित हो, तो जातक को पौत्र सुख प्राप्त होता है।
  8. यदि पंचम भाव और पंचमेश दोनों पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो (दृष्टि या युति) और बृहस्पति ग्रह भी बलवान हो, तो जातक को कई संतानें प्राप्त होती हैं।
  9. यदि लग्नेश और पंचमेश एक साथ बैठे हों, या उनमें परस्पर दृष्टि संबंध हो, या वे दोनों स्वगृही (अपनी राशि में), मित्रगृही (मित्र की राशि में) या उच्च राशि में स्थित हों, तो संतान योग अवश्य बनता है।
  10. यदि लग्नेश और पंचमेश किसी शुभ ग्रह के साथ केंद्र भाव में स्थित हों और द्वितीयेश (द्वितीय भाव का स्वामी) बलवान हो, तो संतान योग बनता है।
  11. यदि लग्नेश और नवमेश दोनों सप्तम भाव में स्थित हों, या द्वितीयेश लग्न में स्थित हो, तो संतान योग बनता है।
  12. निम्नलिखित चार स्थानों में से किसी भी स्थान में यदि रवि, वृष राशि और राहु, ये तीनों ग्रह एक साथ बैठे हों, तो जातक को अनेक संतानें प्राप्त होती हैं:
    • उपपद से सप्तम स्थान से पंचम स्थान।
    • उपपद की नवांश राशि से पंचम स्थान।
    • उपपद के सप्तम स्थान का स्वामी जिस राशि में हो, उससे पंचम स्थान।
    • उपपद से सप्तम स्थान के नवांश का स्वामी जिस स्थान में हो, उससे पंचम स्थान।
    यदि इन स्थानों में विषम राशियां (मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु, कुंभ) हों, तो जातक को अनेक पुत्र प्राप्त होते हैं। यदि सम राशियां (वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर, मीन) हों, तो अल्प पुत्र योग बनता है। यदि मिश्रित प्रभाव हो, तो मिश्रित फल प्राप्त होता है। यदि कुंडली में धारा 151 के नियम 19 में वर्णित संतानहीनता का योग भी बन रहा हो, तो संतान प्राप्ति में विलंब होता है।
  13. निम्नलिखित चार योगों में से किसी भी योग के कुंडली में होने पर जातक की स्त्री को संतान प्राप्ति नहीं होती है। पहले तीन योगों में यदि गर्भाधान हो भी जाए, तो गर्भ नष्ट हो जाता है, और चौथे योग में स्त्री गर्भवती ही नहीं होती:
    • यदि सूर्य लग्न में और शनि सप्तम भाव में हो।
    • यदि सूर्य और शनि सप्तम भाव में हों, चंद्रमा दशम भाव में हो और उस पर बृहस्पति की दृष्टि न हो।
    • यदि षष्ठेश (छठे भाव का स्वामी), रवि और शनि, ये तीनों छठे भाव में हों, चंद्रमा सप्तम भाव में हो और उस पर बुध ग्रह की दृष्टि हो।
    • यदि शनि और मंगल छठे और चतुर्थ भाव में स्थित हों।
  14. यदि पंचम भाव में कोई शुभ ग्रह बैठा हो, या उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि हो, या पंचम भाव का स्वामी कोई शुभ ग्रह हो, तो ऐसे जातक को बारह प्रकार के पुत्रों में से किसी भी प्रकार का पुत्र अवश्य प्राप्त होता है।
  15. यदि लग्न कुंडली और चंद्र कुंडली में जो भी अधिक बलवान हो, उससे पंचम स्थान बृहस्पति के वर्ग (धनु या मीन राशि) का हो और शुभ राशि (जैसे, वृष, कर्क, कन्या, तुला) का भी हो, या उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि हो, तो जातक को पुत्र अवश्य प्राप्त होता है।
  16. यदि पंचम भाव शनि के वर्ग (मकर या कुंभ राशि) का हो, और उस पर बुध ग्रह की दृष्टि हो, परंतु बृहस्पति, मंगल या सूर्य की दृष्टि न हो, तो जातक को क्षेत्रज पुत्र (अर्थात, देवर या अन्य निकट संबंधी के वीर्य से उत्पन्न) की प्राप्ति होती है।
  17. यदि पंचम स्थान बुध के वर्ग (मिथुन या कन्या राशि) का हो और उस पर शनि ग्रह की दृष्टि हो, परंतु बृहस्पति, मंगल या सूर्य की दृष्टि न हो, तो भी जातक को क्षेत्रज पुत्र की प्राप्ति होती है।
  18. यदि पंचम स्थान शनि के वर्ग (मकर या कुंभ राशि) का हो, या पंचम स्थान में सूर्य बैठा हो और उस पर मंगल ग्रह की दृष्टि हो, तो जातक को अधमप्रभव पुत्र (अर्थात, अपने से नीच जाति या वर्ण की स्त्री से उत्पन्न) की प्राप्ति होती है।
  19. यदि चंद्रमा मंगल के नवांश में होकर पंचम स्थान में बैठा हो और उस पर शनि ग्रह की दृष्टि हो, परंतु अन्य किसी ग्रह की दृष्टि न हो, तो जातक को गूढ़ोत्पन्न पुत्र (अर्थात, पत्नी को किसी अन्य पुरुष से उत्पन्न) की प्राप्ति होती है।
  20. यदि चंद्रमा शनि के वर्ग (मकर या कुंभ राशि) का होकर शनि के साथ पंचम स्थान में बैठा हो और उस पर सूर्य और शुक्र ग्रहों की दृष्टि भी हो, तो जातक को पौनर्भव पुत्र (अर्थात, किसी विधवा स्त्री से उत्पन्न) की प्राप्ति होती है।
  21. यदि पंचम भाव सूर्य के षोडशांश वर्ग में हो और पंचम स्थान में सूर्य बैठा हो, अर्थात पंचम भाव सूर्य से दृष्ट हो, तो जातक को कानिन पुत्र (अर्थात, अविवाहित कन्या से उत्पन्न) की प्राप्ति होती है।
  22. यदि पंचम भाव सूर्य के वर्ग (सिंह राशि) का हो और चंद्रमा से दृष्ट हो, या पंचम भाव चंद्रमा के वर्ग (कर्क राशि) का हो और सूर्य से दृष्ट हो, और उस पर शुक्र ग्रह की भी दृष्टि हो, तो जातक को सहोदर पुत्र (अर्थात, ऐसी स्त्री से पुत्र जो विवाह के समय ही गर्भवती हो) की प्राप्ति होती है।
  23. यदि पंचम भाव शुक्र के नवांश में हो और शुक्र से दृष्ट भी हो, तो ऐसे जातक को किसी दासी से संतान की प्राप्ति होती है।
  24. यदि पंचम भाव चंद्रमा के नवांश में हो और चंद्रमा से दृष्ट भी हो, तो जातक को दासी से संतान की उत्पत्ति होती है।

6. संतान प्रतिबंधक योग: संतानहीनता के ज्योतिषीय कारण

कुंडली में कुछ ऐसे योग बनते हैं, जो संतान प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं, या संतान के नाश का कारण बनते हैं। इन योगों को संतान प्रतिबंधक योग कहा जाता है। इनमें से कुछ प्रमुख योग इस प्रकार हैं:

  1. यदि छठे, आठवें या बारहवें भाव का स्वामी पंचम भाव में स्थित हो, या पंचमेश (पंचम भाव का स्वामी) छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो, या पंचम भाव का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें भाव का स्वामी भी हो, या पंचमेश नीच राशि में स्थित हो, या अस्त हो, या पंचम भाव में स्थित ग्रह नीच राशि में हो या अस्त हो, तो ये योग संतान के लिए अनिष्टकारी होते हैं।
    • उदाहरण: कुंडली क्रमांक 27, महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह जी की कुंडली में पंचमेश और पंचम भाव में स्थित बुध ग्रह अस्त हैं।
  2. यदि मकर, मीन, कर्क या धनु राशि का बृहस्पति पंचम भाव में स्थित हो, तो यह भी पुत्र के लिए अनिष्टकारी होता है। यद्यपि बृहस्पति को पुत्र कारक ग्रह माना जाता है, परंतु पंचम भाव में इसकी स्थिति शुभ फलदायी नहीं होती। केवल बृहस्पति के पंचम भाव में स्थित होने से ही पुत्र संख्या में कमी आ जाती है। विशेष रूप से, मकर का बृहस्पति (नीच), मीन और धनु का बृहस्पति (स्वगृही) और कर्क का बृहस्पति (उच्च) यदि पंचम भाव में स्थित हों, तो पुत्र के लिए अत्यंत अनिष्टकारी होते हैं। मीन का बृहस्पति बहुत कम संतान देता है। धनु का बृहस्पति बहुत चिंता और प्रयासों के बाद संतान देता है। कर्क और कुंभ का बृहस्पति प्रायः संतान होने ही नहीं देता। यदि पंचम भाव में स्थित बृहस्पति पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि भी न हो, तो पुत्र का अभाव ही रहता है।
  3. यदि तृतीयाधिपति (तीसरे भाव का स्वामी) तृतीय भाव में, लग्न में, पंचम भाव में या धन स्थान (द्वितीय भाव) में स्थित हो और कुंडली में कोई अन्य शुभ योग न बन रहा हो, तो संतान योग में बाधा उत्पन्न होती है और प्रायः संतान की मृत्यु हो जाती है।
  4. यदि पंचमेश और द्वितीयेश दोनों निर्बल हों और पंचम स्थान पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो जातक को अनेक पत्नियां होने पर भी पुत्र का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता।
    • उदाहरण: कुंडली क्रमांक 27, महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह जी की कुंडली में पंचमेश और द्वितीयेश दोनों ही बुध ग्रह हैं, और वे सूर्य से अस्त हैं और शनि से दृष्ट हैं।
  5. यदि लग्नेश, सप्तमेश, पंचमेश और बृहस्पति, ये चारों ग्रह कुंडली में दुर्बल हों, तो जातक संतानहीन होता है।
  6. यदि पंचम स्थान में कोई पाप ग्रह बैठा हो, पंचमेश नीच राशि में स्थित हो और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो, तो जातक संतानहीन होता है।
  7. यदि बृहस्पति से पंचम स्थान, लग्न से पंचम स्थान और जन्मकालीन चंद्रमा से पंचम स्थान, इन तीनों स्थानों में पाप ग्रह बैठे हों और उन पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि या युति न हो, तो जातक निःसंतान होता है।
  8. यदि पंचम स्थान में कोई पाप ग्रह बैठा हो, पंचमेश पाप ग्रहों के मध्य में स्थित हो (अर्थात, पंचमेश से पिछले और अगले भाव में पाप ग्रह हों) और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि या युति न हो, तो जातक संतानहीन होता है।
  9. यदि बृहस्पति दो पाप ग्रहों से घिरा हुआ हो (अर्थात, बृहस्पति से पिछले और अगले भाव में पाप ग्रह हों), पंचमेश निर्बल हो और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि या युति न हो, तो जातक निःसंतान होता है।
  10. यदि पंचमेश जिस राशि में स्थित हो, उससे छठे, आठवें या बारहवें स्थान में पाप ग्रह बैठे हों, तो यह पुत्र के लिए अत्यंत अनिष्टकारी होता है। यदि इन तीनों स्थानों में पाप ग्रह बैठे हों, तो जातक को प्रायः मृत संतान पैदा होती है और कभी-कभी तो जातक संतानहीन ही रहता है। इसी प्रकार, पंचम स्थान से छठे, आठवें या बारहवें स्थानों में पाप ग्रहों का बैठना पुत्र के लिए अशुभ होता है। कुछ विद्वान इस योग को “कुलक्षय योग” भी कहते हैं।
  • उदाहरण: कुंडली क्रमांक 32, महारानी इंदौर की कुंडली में, इस धारा के नियम (1) के अनुसार, पंचमेश शनि द्वादश भाव में स्थित है। नियम (3) के अनुसार, तृतीयाधिपति लग्न में स्थित है। पुनः, नियम (9) के अनुसार, बृहस्पति दो पाप ग्रहों से घिरा हुआ है, और पंचमेश द्वादश भाव में स्थित है और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि या युति नहीं है। नियम (10) के अनुसार, पंचमेश के स्थान से आठवें स्थान में और पंचम भाव से भी आठवें स्थान में, अर्थात दोनों स्थानों में पाप ग्रह बैठे हैं। इस कारण महारानी साहिबा को तीन बार गर्भपात हुआ। यह जानकारी “रॉयल होरोस्कोप” नामक पुस्तक से प्राप्त हुई है। कुंडली क्रमांक 66, भुवनेश्वरी बाबू की कुंडली में, पंचमेश बृहस्पति द्वितीय भाव में स्थित है। द्वितीय स्थान से छठे स्थान में केतु और द्वादश स्थान में राहु और मंगल स्थित हैं। द्वितीय भाव से अष्टम स्थान में कोई पाप ग्रह नहीं है। संभवतः इसी कारण इन्हें अभी तक कोई संतान नहीं हुई है।
  1. यदि चंद्रमा दशम भाव में स्थित हो, शुक्र सप्तम भाव में स्थित हो और एक से अधिक पाप ग्रह चतुर्थ भाव में स्थित हों, तो जातक के सभी संतानों की मृत्यु जातक के जीवनकाल में ही हो जाती है।
  2. यदि दशम भाव में चंद्रमा स्थित हो, सप्तम भाव में राहु स्थित हो, चतुर्थ भाव में पाप ग्रह स्थित हों और लग्नेश बुध ग्रह के साथ स्थित हो, तो जातक की वंश वृद्धि नहीं होती है।
  3. यदि पंचम, अष्टम और द्वादश, इन तीनों भावों में पाप ग्रह बैठे हों, तो वंश वृद्धि नहीं होती।
  4. यदि बुध और शुक्र सप्तम भाव में स्थित हों, बृहस्पति पंचम भाव में स्थित हो, चतुर्थ भाव में पाप ग्रह स्थित हो और चंद्रमा से अष्टम भाव में पाप ग्रह स्थित हो, तो जातक का कुल नष्ट हो जाता है।
  5. यदि लग्न, सप्तम और द्वादश भावों में पाप ग्रह बैठे हों और शत्रु के वर्ग (राशि) में स्थित हों, तो इसे “वंश-विच्छेद योग” कहते हैं।
  6. यदि चंद्रमा और बृहस्पति लग्न में स्थित हों और उन पर मंगल और शनि की पूर्ण दृष्टि हो, तो भी “वंश-विच्छेद योग” बनता है।
  7. यदि सभी पाप ग्रह (सूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु) चतुर्थ भाव में बैठे हों, तो भी जातक संतानहीन होता है।
  8. यदि चंद्रमा पंचम भाव में स्थित हो और सभी पाप ग्रह लग्न, सप्तम और द्वादश भावों में स्थित हों, तो जातक को न तो स्त्री सुख प्राप्त होता है और न ही संतान सुख।
  9. निम्नलिखित पाँच स्थानों में से किसी भी स्थान में यदि बुध, शुक्र और शनि, ये तीनों ग्रह एक साथ बैठे हों, तो जातक संतानहीन होता है:
    • (1) उपपद से द्वितीय स्थान।
    • (2) उपपद से सप्तम स्थान से द्वितीय स्थान (अर्थात उपपद से अष्टम स्थान)।
    • (3) उपपद से सप्तमेश जिस राशि में हो, उससे द्वितीय स्थान।
    • (4) उपपद से सप्तम भाव के नवांश की राशि से द्वितीय स्थान।
    • (5) उपपद से सप्तम स्थान के नवांश का स्वामी जिस राशि में हो, उससे द्वितीय स्थान।
    इस योग को समझने के लिए उदाहरण कुंडली का सहारा लेना होगा (उदाहरण कुंडली यहाँ उपलब्ध नहीं है)। मान लीजिए, किसी कुंडली में द्वादशेश (द्वादश भाव का स्वामी) मंगल नवम भाव में स्थित है। इसका अर्थ है कि द्वादश भाव से दस घर (घर/भाव) आगे मंगल स्थित है। इस स्थिति में, उपपद मंगल से दशम स्थान में होगा, अर्थात लग्न से छठे भाव में (वृष राशि)। इस प्रकार:
    • वृष राशि से द्वितीय स्थान (मिथुन राशि) पहला स्थान होगा।
    • उपपद से सप्तम स्थान कुंडली का द्वादश भाव होगा। उससे द्वितीय स्थान लग्न (धन राशि) होगा। यह दूसरा स्थान हुआ।
    • उपपद से सप्तमेश मंगल सिंह राशि में स्थित है। सिंह राशि से कन्या राशि द्वितीय स्थान हुआ। यह तीसरा स्थान हुआ।
    • उपपद से सप्तम भाव वृश्चिक राशि है, जो द्वादश भाव भी है। यदि द्वादश भाव का स्पष्ट 7 अंश 19 कला है, तो इसका नवांश धनु राशि का होगा। धनु राशि से द्वितीय मकर राशि (द्वितीय भाव) हुआ। यह चौथा स्थान हुआ।
    • इसी प्रकार, उपपद से सप्तम भाव वृश्चिक राशि (द्वादश भाव) है, जिसका स्पष्ट यदि 7 अंश 19 कला है और जो धनु राशि का नवांश होता है, उसका स्वामी बृहस्पति मिथुन राशि में (सप्तम भाव में) स्थित है। मिथुन राशि से द्वितीय कर्क राशि हुई। यह पाँचवाँ स्थान हुआ।
    अब यदि इन पाँच स्थानों (मिथुन, धन, कन्या, मकर, कर्क) में से किसी भी स्थान में बुध, शुक्र और शनि, ये तीनों ग्रह एक साथ बैठे हों, तो जातक संतानहीन होगा। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इन स्थानों का विचार करने से पहले यह देखना जरूरी है कि कुंडली में बुध, शुक्र और शनि एक साथ स्थित हैं या नहीं। यदि ये तीनों ग्रह एक साथ नहीं हैं, तो इन स्थानों का विचार करना व्यर्थ होगा।
  10. यदि पंचमेश नीच राशि में स्थित हो, शत्रु की राशि में स्थित हो, अस्त हो, अथवा छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो, तो जातक को संतान प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार, यदि पंचम भाव में स्थित ग्रह नीच राशि में हो, शत्रु की राशि में हो, अस्त हो, अथवा छठे, आठवें या बारहवें भाव का स्वामी हो, तो भी संतान का अभाव होता है।
  11. यदि पंचम भाव पाप राशि (मेष, सिंह, वृश्चिक, मकर, कुंभ) में स्थित हो और उसमें तीन या अधिक पाप ग्रह बैठे हों और उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो, तो जातक को संतान का अभाव होता है।
    • उदाहरण: कुंडली क्रमांक 27, महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर जी की कुंडली में पंचम भाव कन्या राशि में है। कन्या राशि का स्वामी बुध पाप ग्रह के साथ स्थित होने से पाप ग्रह ही माना जाएगा, और पंचम भाव में तीन पाप ग्रह (सूर्य, मंगल, केतु) बैठे हैं। उस पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि भी नहीं है, बल्कि शनि की दृष्टि है।
  12. निम्नलिखित चार योगों में से किसी भी योग के कुंडली में होने पर वंश का नाश होता है:
    • (1) यदि चतुर्थ भाव में कोई पाप ग्रह स्थित हो, सप्तम भाव में शुक्र स्थित हो और दशम भाव में चंद्रमा स्थित हो।
    • (2) यदि लग्न, पंचम, अष्टम और द्वादश भावों में पाप ग्रह स्थित हों।
    • (3) यदि शुक्र और बुध सप्तम भाव में स्थित हों और चतुर्थ भाव में पाप ग्रह स्थित हो।
    • (4) यदि चंद्रमा पंचम भाव में स्थित हो और लग्न, अष्टम और द्वादश भावों में पाप ग्रह स्थित हों।
  13. यदि लग्न, बृहस्पति और चंद्रमा से पंचम स्थान, अर्थात तीनों स्थानों पर पाप ग्रहों का प्रभाव हो (दृष्टि या युति), अथवा उन तीनों स्थानों के स्वामी छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हों, तो ऐसे योगों में जातक संतानहीन होता है।

निष्कर्ष

इस अध्याय में हमने पुत्र से संबंधित विभिन्न ज्योतिषीय योगों का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया। पुत्र प्राप्ति के योग, पुत्र से मिलने वाले सुख-दुःख का विचार, संतानहीनता के योग, और इन सबसे संबंधित अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर हमने गहन चर्चा की। यह समझना आवश्यक है कि ज्योतिष शास्त्र एक मार्गदर्शक शास्त्र है। कुंडली में वर्णित योग, संभावनाएं दर्शाते हैं, अंतिम सत्य नहीं।

यह भी ध्यान रखना चाहिए कि संतान प्राप्ति केवल ज्योतिषीय योगों पर ही निर्भर नहीं करती, बल्कि इसके लिए शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि किसी जातक को संतान प्राप्ति में कठिनाई हो रही है, तो उसे ज्योतिषीय उपायों के साथ-साथ योग्य चिकित्सक से भी परामर्श लेना चाहिए।

दत्तक पुत्र योग

यह एक ज्योतिषीय पाठ है जो “दत्तक पुत्र योग” यानी गोद लिए हुए पुत्र के योगों पर आधारित है। इसमें विभिन्न ज्योतिषीय स्थितियों का वर्णन है जो किसी व्यक्ति की कुंडली में होने पर दत्तक पुत्र प्राप्ति या स्वयं के दत्तक पुत्र बनने की संभावना दर्शाती हैं।

यहां दिए गए विभिन्न योगों का विस्तृत विवरण इस प्रकार है:

दत्तक पुत्र योग के विभिन्न ज्योतिषीय संयोजन:

  1. मंगल और शनि का योग: यदि कुंडली में मंगल और शनि एक साथ किसी विशेष भाव में हों (जिनका उल्लेख धा०१५० (१२) में है), तो जातक को दत्तक पुत्र होता है।
  2. पंचम स्थान पर शनि या बुध का प्रभाव: यदि पंचम स्थान (संतान का भाव) शनि या बुध का स्थान हो (मकर, कुम्भ, मिथुन, कन्या राशि) और उस पर शनि की दृष्टि हो या शनि वहां स्थित हो, तो दत्तक पुत्र संभव है। निर्बल पंचमेश का लग्नेश और सप्तमेश से संबंध भी दत्तक पुत्र योग बनाता है।
  3. चन्द्रमा, पंचमेश और लग्नेश की स्थिति: यदि चन्द्रमा पाप ग्रह के क्षेत्र में हो, पंचमेश नवम भाव में हो और लग्नेश पंचमेश से त्रिकोण में हो, तो दत्तक पुत्र योग बनता है।
  4. पंचमेश की नवांश स्थिति: यदि पंचमेश चतुर्थ भाव में शनि के नवांश में हो या मिथुन राशि में होकर शनि के नवांश में हो, तो भी दत्तक पुत्र का योग बनता है।
  5. पंचमेश के साथ सूर्य और बुध: यदि पंचमेश मिथुन या शनि के नवांश में स्थित हो और उसके साथ सूर्य और बुध भी हों, तो पोष्य पुत्र योग होता है।
  6. लग्नेश और पंचमेश का परिवर्तन: यदि लग्नेश पंचम भाव में और पंचमेश लग्न में हो, तो जातक को पोष्य पुत्र लेना पड़ता है या वह स्वयं दत्तक पुत्र बनता है। उदाहरण के तौर पर मैसूर के महाराजा की कुंडली का उल्लेख है।
  7. पंचम स्थान में स्वगृही शनि और चन्द्रमा की दृष्टि: यदि पंचम स्थान में स्वगृही शनि हो और उस पर चन्द्रमा की दृष्टि हो, तो दत्तक पुत्र होता है।
  8. पंचम स्थान में शनि की राशि, बुध और चन्द्रमा: यदि पंचम स्थान में शनि की राशि हो और उसमें बुध बैठा हो और चन्द्रमा से दृष्ट हो, तो क्रीत पुत्र (धन देकर खरीदा गया पुत्र) होता है।
  9. पंचम स्थान में शनि और मंगल की स्थिति: यदि शनि पंचम स्थान में और मंगल के सप्तमांश में हो और किसी ग्रह से दृष्ट न हो, तो जातक कृत्रिम पुत्र (बिना अनुमति के किसी को पुत्र बनाना) बनाता है।
  10. पंचम स्थान में मंगल और शनि का प्रभाव: यदि मंगल पंचम स्थान में हो, पंचम स्थान शनि वर्ग का हो और मंगल सूर्य से दृष्ट हो, तो जातक ऐसे बालक को पोष्य पुत्र लेता है जिसे माता-पिता त्याग देते हैं।
  11. बली ग्रह और पंचमेश की दृष्टि का अभाव: यदि पंचम स्थान में कोई बली ग्रह हो और पंचमेश पर उस ग्रह की दृष्टि न हो, तो दत्तक पुत्र होता है।
  12. युग्म लग्न और पंचमेश की स्थिति: यदि लग्न युग्म राशि हो और पंचमेश चतुर्थ भाव में हो या शनि के नवांश में हो, तो दत्तक पुत्र होता है।
  13. पंचमेश, सूर्य और बुध का योग: यदि पंचमेश सूर्य और बुध के साथ हो और पंचमेश जिस नवांश में हो वह युग्म नवांश हो या शनि का नवांश हो, तो दत्तक पुत्र होता है।
  14. शुक्ल पक्ष, बली ग्रह और बृहस्पति: यदि शुक्ल पक्ष में जन्म हो, उस पक्ष का बली ग्रह शनि के नवांश में हो और बृहस्पति पंचम स्थान में हो, तो दत्तक पुत्र द्वारा वंश वृद्धि होती है।
  15. पंचम स्थान में शनि का नवांश और चन्द्रमा: यदि पंचम स्थान शनि के नवांश में हो और चन्द्रमा पंचम स्थान में हो, तो दत्तक पुत्र होता है।
  16. पंचम स्थान में शनि का नवांश, शनि और चन्द्रमा: यदि पंचम स्थान शनि के नवांश में हो और शनि पंचम स्थान में हो और चन्द्रमा से दृष्ट हो, तो दत्तक पुत्र होता है। कभी-कभी विधवा स्त्री से भी संतानोत्पत्ति होती है।
  17. पंचम स्थान में शनि का नवांश, शनि, चन्द्रमा और बुध: यदि पंचम स्थान शनि के नवांश में हो और पंचम स्थान में शनि, चन्द्रमा और बुध हों, तो दत्तक पुत्र होता है।
  18. निर्बल चन्द्रमा या बुध: निर्बल चन्द्रमा या बुध के पंचम स्थान में रहने से दत्तक पुत्र योग होता है।
  19. लग्नेश और पंचमेश की स्थिति और शुभ ग्रहों की दृष्टि: यदि लग्नेश और पंचमेश छठे, आठवें या बारहवें भाव में हों और उन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, तो जातक को पुत्र और दत्तक पुत्र दोनों होते हैं।
  20. पंचमेश, बृहस्पति और शुक्र की स्थिति: यदि पंचमेश शनि के नवांश में हो, बृहस्पति और शुक्र स्वगृही हों, तो जातक को दत्तक पुत्र लेने के बाद अपना संतान भी होता है।
  21. गुलिक, चन्द्रमा और शनि: यदि गुलिक पर चन्द्रमा की दृष्टि हो और शनि उस गुलिक के साथ हो या शनि की उस गुलिक पर दृष्टि हो, तो जातक किसी दूसरे से दत्तक पुत्र जैसा गोद लिया जाता है।
  22. पंचम या सप्तम स्थान में शनि और मंगल: यदि सप्तम या पंचम स्थान में शनि और मंगल हों और उन पर किसी ग्रह की दृष्टि न पड़ती हो, तो जातक दत्तक पुत्र होकर किसी से गोद लिया जाता है।

यह ज्योतिषीय पाठ संतान की संख्या का निर्धारण करने के विभिन्न तरीकों पर आधारित है। इसमें कई प्राचीन ज्योतिषीय सिद्धांतों और विधियों का वर्णन है जो किसी व्यक्ति की कुंडली में संभावित संतानों की संख्या का अनुमान लगाने में मदद करते हैं।

यहां विभिन्न विधियों का विस्तृत विवरण दिया गया है:

संतान संख्या निर्धारण की विभिन्न विधियाँ:

  1. पंचम भाव के नवांश: कई आचार्यों के अनुसार, पंचम भाव के नवांशों की संख्या से पुत्रों की संख्या का विचार किया जाता है। शुभ ग्रहों की दृष्टि होने पर संख्या दोगुनी हो जाती है। पुरुष ग्रहों की दृष्टि से पुत्र और स्त्री ग्रहों की दृष्टि से पुत्री उत्पन्न होती है। इसी प्रकार अन्य भावों के नवांश से भाई, पत्नी, दासियों आदि की संख्या का विचार होता है।
  2. पंचम भाव में ग्रहों की स्थिति और दृष्टि: पंचम भाव में स्थित ग्रहों और उस पर पड़ने वाली दृष्टियों के आधार पर संतान संख्या का अनुमान लगाया जाता है। पुरुष ग्रहों के योग और दृष्टि से पुत्र, शुक्र या चन्द्रमा की दृष्टि से कन्या और शनि या मंगल की दृष्टि से गर्भपात या संतान नाश होता है।
  3. पंचमेश की स्थिति और ग्रहों का प्रभाव: यदि पंचमेश (पंचम भाव का स्वामी) पुरुष ग्रह हो और बली होकर विषम राशि में बैठा हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, तो पुत्रों की संख्या अधिक होती है। इसी प्रकार, बली बृहस्पति पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होने पर भी पुत्र संख्या अधिक होती है। यदि पंचमेश स्त्री ग्रह हो और बली होकर सम राशि में बैठा हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, तो कन्याओं की संख्या अधिक होती है। यदि बली बृहस्पति पर शनि या बुध की दृष्टि हो, तो केवल दत्तक पुत्र होता है।
  4. पंचम भाव का वर्ग और चन्द्रमा/शुक्र का प्रभाव: यदि पंचम भाव शुक्र या चन्द्रमा के वर्ग का हो और उस पर चन्द्रमा या शुक्र की दृष्टि हो या वे युत हों, तो कन्या संतान अधिक होती है। यदि पंचम भाव का वर्ग युग्म राशि हो, तो भी कन्या संतान होती है; अन्यथा पुत्र होते हैं।
  5. पंचमेश/नवमेश की स्थिति और चन्द्रमा/शुक्र का प्रभाव: यदि पंचमेश या नवमेश सप्तम भाव में हो या युग्म राशि में हो और वह चन्द्रमा या शुक्र से दृष्ट या युक्त हो, तो कन्या संतान अधिक होती है।
  6. पंचमेश/नवमेश और पुरुष ग्रहों का प्रभाव: यदि पंचमेश या नवमेश पुरुष वर्ग का हो और पुरुष ग्रह से दृष्ट या युक्त हो, तो पुत्रों की संख्या अधिक होती है।
  7. पंचम भाव/पंचमेश की राशि, नवांश और ग्रहों का प्रभाव: यदि पंचम भाव या पंचमेश पुरुष राशिगत हो, पुरुष नवांश का हो या पुरुष ग्रह से दृष्ट या युक्त हो, तो पुत्र होता है। यदि स्त्री राशि, स्त्री नवांश आदि का हो और स्त्री ग्रह से दृष्ट या युक्त हो, तो कन्या होती है।
  8. पंचमाधिपति के नवांश: लग्न से पंचमाधिपति जितने नवांश में रहे, वही संख्या संतान की भी होती है।
  9. बृहस्पति, चन्द्रमा और सूर्य का स्फुट: बृहस्पति, चन्द्रमा और सूर्य के स्फुटों को जोड़कर जो राश्यादि हो और उसका जो नवांश हो, वही संख्या संतान की होगी।
  10. पंचमेश, नवमेश और चतुर्थेश का स्फुट: पंचमेश, नवमेश और चतुर्थेश के स्फुट जोड़कर जो राश्यादि हो और उसका जो नवांश हो, वही संख्या संतान की होगी।
  11. पंचम, नवम और चतुर्थ भाव में ग्रहों का स्फुट: पंचम, नवम और चतुर्थ भाव में ग्रहों के स्फुट को जोड़कर जो नवांश संख्या होगी, वही संतान संख्या भी होगी।
  12. पंचम भाव का नवांश और पाप ग्रहों का प्रभाव: पंचम भाव की राश्यादि में जितना नवांश बीत चुका है, वही संतान की संख्या होती है और जितना पापग्रह का नवांश बीता है, उतना संतान नाश होता है। शुभ दृष्टि से संख्या दोगुनी और पाप दृष्टि से नाश होने वाली संतान की संख्या दोगुनी होती है।
  13. भुक्ति नवांश विधि: जिस भाव-जनित संख्या का विचार करना हो, उस भाव के भुक्त नवांश को अंश में लाकर (नवांश संख्या x 3.75 = अंश) और उस अंश को शुभ-दृष्टि-रूपा से गुणा कर गुणनफल को 200 से भाग देने पर जो फल आवे, वह संख्या उस भाव के कारक (पुत्रादि) होगी।
  14. उपपद और पंचम भाव में चन्द्रमा: उपपद से द्वितीय आदि स्थानों से पंचम स्थान में यदि चन्द्रमा स्थित हो, तो जातक एक पुत्र वाला होता है।
  15. स्वक्षेत्री पंचमेश: यदि पंचमेश स्वक्षेत्री हो, तो जातक को बहुत संतान नहीं होता है।
  16. विशेष राशियाँ: यदि लग्न, पंचम स्थान या चन्द्र राशि वृष, सिंह, कन्या या वृश्चिक हो, तो संतान कम होता है।
  17. केन्द्रगत पंचमेश: यदि पंचमेश केन्द्रगत हो, तो प्रायः संतान थोड़ी ही उम्र में होता है।
  18. नवांशाधिपति का प्रभाव: पंचमेश का नवांशाधिपति यदि अपने नवांश का हो, तो भी जातक को एक ही पुत्र होता है।

संतान संख्या

यह ज्योतिषीय पाठ संतान की संख्या का निर्धारण करने के विभिन्न तरीकों पर आधारित है। इसमें कई प्राचीन ज्योतिषीय सिद्धांतों और विधियों का वर्णन है जो किसी व्यक्ति की कुंडली में संभावित संतानों की संख्या का अनुमान लगाने में मदद करते हैं।

यहां विभिन्न विधियों का विस्तृत विवरण दिया गया है:

संतान संख्या निर्धारण की विभिन्न विधियाँ:

  1. पंचम भाव के नवांश: कई आचार्यों के अनुसार, पंचम भाव के नवांशों की संख्या से पुत्रों की संख्या का विचार किया जाता है। शुभ ग्रहों की दृष्टि होने पर संख्या दोगुनी हो जाती है। पुरुष ग्रहों की दृष्टि से पुत्र और स्त्री ग्रहों की दृष्टि से पुत्री उत्पन्न होती है। इसी प्रकार अन्य भावों के नवांश से भाई, पत्नी, दासियों आदि की संख्या का विचार होता है।
  2. पंचम भाव में ग्रहों की स्थिति और दृष्टि: पंचम भाव में स्थित ग्रहों और उस पर पड़ने वाली दृष्टियों के आधार पर संतान संख्या का अनुमान लगाया जाता है। पुरुष ग्रहों के योग और दृष्टि से पुत्र, शुक्र या चन्द्रमा की दृष्टि से कन्या और शनि या मंगल की दृष्टि से गर्भपात या संतान नाश होता है।
  3. पंचमेश की स्थिति और ग्रहों का प्रभाव: यदि पंचमेश (पंचम भाव का स्वामी) पुरुष ग्रह हो और बली होकर विषम राशि में बैठा हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, तो पुत्रों की संख्या अधिक होती है। इसी प्रकार, बली बृहस्पति पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होने पर भी पुत्र संख्या अधिक होती है। यदि पंचमेश स्त्री ग्रह हो और बली होकर सम राशि में बैठा हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, तो कन्याओं की संख्या अधिक होती है। यदि बली बृहस्पति पर शनि या बुध की दृष्टि हो, तो केवल दत्तक पुत्र होता है।
  4. पंचम भाव का वर्ग और चन्द्रमा/शुक्र का प्रभाव: यदि पंचम भाव शुक्र या चन्द्रमा के वर्ग का हो और उस पर चन्द्रमा या शुक्र की दृष्टि हो या वे युत हों, तो कन्या संतान अधिक होती है। यदि पंचम भाव का वर्ग युग्म राशि हो, तो भी कन्या संतान होती है; अन्यथा पुत्र होते हैं।
  5. पंचमेश/नवमेश की स्थिति और चन्द्रमा/शुक्र का प्रभाव: यदि पंचमेश या नवमेश सप्तम भाव में हो या युग्म राशि में हो और वह चन्द्रमा या शुक्र से दृष्ट या युक्त हो, तो कन्या संतान अधिक होती है।
  6. पंचमेश/नवमेश और पुरुष ग्रहों का प्रभाव: यदि पंचमेश या नवमेश पुरुष वर्ग का हो और पुरुष ग्रह से दृष्ट या युक्त हो, तो पुत्रों की संख्या अधिक होती है।
  7. पंचम भाव/पंचमेश की राशि, नवांश और ग्रहों का प्रभाव: यदि पंचम भाव या पंचमेश पुरुष राशिगत हो, पुरुष नवांश का हो या पुरुष ग्रह से दृष्ट या युक्त हो, तो पुत्र होता है। यदि स्त्री राशि, स्त्री नवांश आदि का हो और स्त्री ग्रह से दृष्ट या युक्त हो, तो कन्या होती है।
  8. पंचमाधिपति के नवांश: लग्न से पंचमाधिपति जितने नवांश में रहे, वही संख्या संतान की भी होती है।
  9. बृहस्पति, चन्द्रमा और सूर्य का स्फुट: बृहस्पति, चन्द्रमा और सूर्य के स्फुटों को जोड़कर जो राश्यादि हो और उसका जो नवांश हो, वही संख्या संतान की होगी।
  10. पंचमेश, नवमेश और चतुर्थेश का स्फुट: पंचमेश, नवमेश और चतुर्थेश के स्फुट जोड़कर जो राश्यादि हो और उसका जो नवांश हो, वही संख्या संतान की होगी।
  11. पंचम, नवम और चतुर्थ भाव में ग्रहों का स्फुट: पंचम, नवम और चतुर्थ भाव में ग्रहों के स्फुट को जोड़कर जो नवांश संख्या होगी, वही संतान संख्या भी होगी।
  12. पंचम भाव का नवांश और पाप ग्रहों का प्रभाव: पंचम भाव की राश्यादि में जितना नवांश बीत चुका है, वही संतान की संख्या होती है और जितना पापग्रह का नवांश बीता है, उतना संतान नाश होता है। शुभ दृष्टि से संख्या दोगुनी और पाप दृष्टि से नाश होने वाली संतान की संख्या दोगुनी होती है।
  13. भुक्ति नवांश विधि: जिस भाव-जनित संख्या का विचार करना हो, उस भाव के भुक्त नवांश को अंश में लाकर (नवांश संख्या x 3.75 = अंश) और उस अंश को शुभ-दृष्टि-रूपा से गुणा कर गुणनफल को 200 से भाग देने पर जो फल आवे, वह संख्या उस भाव के कारक (पुत्रादि) होगी।
  14. उपपद और पंचम भाव में चन्द्रमा: उपपद से द्वितीय आदि स्थानों से पंचम स्थान में यदि चन्द्रमा स्थित हो, तो जातक एक पुत्र वाला होता है।
  15. स्वक्षेत्री पंचमेश: यदि पंचमेश स्वक्षेत्री हो, तो जातक को बहुत संतान नहीं होता है।
  16. विशेष राशियाँ: यदि लग्न, पंचम स्थान या चन्द्र राशि वृष, सिंह, कन्या या वृश्चिक हो, तो संतान कम होता है।
  17. केन्द्रगत पंचमेश: यदि पंचमेश केन्द्रगत हो, तो प्रायः संतान थोड़ी ही उम्र में होता है।
  18. नवांशाधिपति का प्रभाव: पंचमेश का नवांशाधिपति यदि अपने नवांश का हो, तो भी जातक को एक ही पुत्र होता है।

संतानोत्पत्ति का समय

यह ज्योतिषीय पाठ संतानोंत्पत्ति के समय का निर्धारण करने की विभिन्न विधियों पर आधारित है। इसमें कई प्राचीन ज्योतिषीय सिद्धांतों और विधियों का वर्णन है जो किसी व्यक्ति की कुंडली में संभावित संतानोत्पत्ति के समय का अनुमान लगाने में मदद करते हैं।

यहां विभिन्न विधियों का विस्तृत विवरण दिया गया है:

संतानोत्पत्ति का समय निर्धारण की विभिन्न विधियाँ:

  1. लग्नेश और पंचमेश का स्फुट: लग्नेश (लग्न का स्वामी) और पंचमेश (पंचम भाव का स्वामी) के स्फुट (अंश, कला, विकला) को जोड़कर जो राशि या नवांश आए, उस राशि और नवांश में या उनके त्रिकोण (त्रिकोण भाव – १, ५, ९) में जब गोचर का बृहस्पति (गुरु) जाता है, तब संतानोत्पत्ति संभव होती है।
  2. चन्द्रमा, लग्न और बृहस्पति से पंचम या नवम स्थान: चन्द्रमा, लग्न और बृहस्पति से जो पंचम या नवम स्थान हो, उन्हें पुत्र-प्रद भाव कहा जाता है। इन भावों के स्वामियों की दशा या अंतर्दशा में भी पुत्र-सौभाग्य संभव होता है।
  3. पंचमेश और सप्तमेश का स्फुट: पंचमेश और सप्तमेश (सप्तम भाव का स्वामी) के स्फुट को जोड़कर जो राश्यादि आए, उसके नक्षत्र की दशा में भी संतानोत्पत्ति संभव होती है और पुत्र होता है।
  4. लग्नेश, सप्तमेश और पंचमेश का स्फुट: लग्नेश, सप्तमेश और पंचमेश के स्फुटों को जोड़ने पर जो राश्यादि होगी, उस राश्यादि से जिस नक्षत्र का बोध हो, उस नक्षत्र की महादशा में जब पंचमस्थ ग्रह, पंचम स्थान पर दृष्टि डालने वाला ग्रह या पंचमेश की अंतर्दशा में पुत्र-जन्म का सुख प्राप्त होता है। उदाहरण सहित व्याख्या दी गई है।
  5. गोचर में लग्नेश की स्थिति: जब गोचर में लग्नेश:
    • पंचमेश के साथ हो जाता है।
    • अपनी उच्च राशि में आ जाता है।
    • अपने गृह (स्वराशि) में आ जाता है।
    • पंचम स्थान में आ जाता है।
    • पंचमेश जिस राशि में हो, उस राशि में आ जाता है, तो इन सभी स्थितियों में से किसी समय पुत्र-जन्म संभव होता है। उदाहरण सहित व्याख्या दी गई है।
  6. संतानोत्पत्ति के लिए दशा/अंतर्दशा: संतानोत्पत्ति निम्नलिखित 6 ग्रहों में से किसी की दशा/अंतर्दशा में संभव होती है:
    • लग्नेश
    • सप्तमेश
    • पंचमेश
    • बृहस्पति
    • पंचम स्थान पर दृष्टि डालने वाले ग्रह
    • पंचमस्थ ग्रहों की दशा/अंतर्दशा
  7. पंचमेश की राशि/नवांश और बृहस्पति का गोचर: पंचमेश जिस राशि में बैठा हो या जिस नवांश में हो, इन राशियों में या यमकण्टक स्थान में जब गोचर का बृहस्पति जाता है, तो संतानोत्पत्ति संभव होती है।
  8. पंचमेश/सप्तमेश के साथ ग्रह या दृष्टि: पंचमेश और सप्तमेश के साथ जो ग्रह बैठा हो या जिस ग्रह की दृष्टि पड़ती हो, उन ग्रहों की दशा/अंतर्दशा में संतानोत्पत्ति का सौभाग्य प्राप्त होता है। उदाहरण सहित व्याख्या दी गई है।
  9. चार स्फुटों का योग और बृहस्पति/शनि का गोचर: निम्नलिखित चार स्फुटों को जोड़ना चाहिए:
    • पंचमेश का स्फुट
    • पुत्र कारक बुध का स्फुट
    • पंचमस्थ ग्रह का स्फुट
    • पंचम स्थान पर दृष्टि डालने वाले ग्रह का स्फुट इनके योग से जो राश्यादि आए, उस राशि और नवांश पर जब गोचर का बृहस्पति जाए, तो संतानोत्पत्ति संभव होगी। यदि गोचर का शनि उपर्युक्त राशि या नवांश में जाए, तो संतान की मृत्यु या क्लेश का समय जानना चाहिए।
  10. बली और शुभ ग्रहों का प्रभाव: यदि पंचमेश, बृहस्पति, पंचम स्थान पर दृष्टि डालने वाले ग्रह और पंचमस्थ ग्रह बली और शुभ हों, तो इन सभी की दशा/अंतर्दशा एवं प्रत्येन्तरदशा काल में संतान सुख होता है और जातक को बड़ों से सम्मान प्राप्त होता है। यदि ये ग्रह ६, ८ या १२ के स्वामी हों, निर्बल हों या ६, ८ या १२ स्थानों में बैठे हों, तो फल विपरीत होता है, अर्थात् संतान की मृत्यु होती है।

द्रव्यादि का विचार

यह ज्योतिषीय पाठ विभिन्न भावों (घरों) से धन और संपत्ति आदि का विचार करने के बारे में है। इसमें बताया गया है कि कुंडली के किन भावों से धन, संपत्ति, भाग्य और अन्य आर्थिक पहलुओं का विश्लेषण किया जाता है।

यहां मुख्य बिंदुओं का विस्तृत विवरण दिया गया है:

किन भावों से द्रव्यादि का विचार होता है:

  1. लग्न (प्रथम भाव): लग्न से मनुष्य के सौभाग्य का विचार होता है। लग्न की मजबूती या कमजोरी पर भाग्य की उन्नति या अवनति निर्भर करती है। लग्नेश (लग्न का स्वामी) का द्रव्य संबंधी भावों से संबंध होने पर भाग्य हमेशा चमकता रहता है।
  2. द्वितीय भाव (धन भाव): इससे वित्त, सुख और भोजन आदि का विचार होता है। यह मुख्य रूप से धन का स्थान है।
  3. चतुर्थ भाव (सुख भाव): इससे सुख, पैतृक धन, भूमि और वाहन आदि का विचार किया जाता है।
  4. पंचम भाव (पुत्र भाव): इससे राजानुग्रह और अचानक धन लाभ जैसे लॉटरी आदि से धन प्राप्ति का विचार होता है।
  5. सप्तम भाव (पत्नी/व्यापार भाव): इससे वाणिज्य, व्यापार और यात्रा आदि का विचार किया जाता है।
  6. नवम भाव (भाग्य भाव): इससे भाग्य के प्रभाव का विचार होता है। इसे भाग्य स्थान भी कहते हैं।
  7. दशम भाव (कर्म भाव): इससे सम्मान और रोजगार आदि का विचार किया जाता है। इसे कर्म स्थान भी कहते हैं।
  8. एकादश भाव (लाभ भाव): इसे लाभ स्थान कहते हैं। इससे धन संग्रह आदि का अनुमान किया जाता है।
  9. शुक्र और बृहस्पति का प्रभाव: शुक्र से सांसारिक सुखों की प्रबलता और बृहस्पति से द्रव्य संचय आदि का विचार होता है।
  10. भावों, स्वामियों और शुक्र/बृहस्पति पर ध्यान: यदि सावधानीपूर्वक उपरोक्त सभी भावों, उनके स्वामियों और विशेष रूप से शुक्र और बृहस्पति पर ध्यान दिया जाए, तो मनुष्य जीवन के धन संबंधी सभी पहलुओं का ज्ञान पूरी तरह से हो सकता है।

धन स्थान और लाभ स्थान का महत्व:

  • धन स्थान (द्वितीय भाव): धन की मात्रा को दर्शाता है।
  • लाभ स्थान (एकादश भाव): धन लाभ की विधि का विचार होता है।

यदि लाभेश (एकादश भाव का स्वामी) कमजोर और बुरे स्थान में हो, तो धन स्थान अच्छा होने पर भी लाभ कठिनाई से होता है। यदि धन स्थान अच्छा हो और लाभ स्थान कमजोर हो, तो धन का संग्रह होगा, लेकिन धन प्राप्त करने में कठिनाई होगी। यदि लाभ स्थान उत्तम हो और धन स्थान निर्बल हो, तो धन लाभ आसानी से होगा, लेकिन धन संग्रह नहीं होगा। यदि दोनों अच्छे हों, तो लाभ भी आसानी से होगा और धन संग्रह भी होता रहेगा। लाभ की मात्रा ग्रहों की उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण आदि स्थिति पर निर्भर करती है।

फलित का नियम:

जिस भाव का विचार करना हो, उस भाव के स्वामी के शुभाशुभ फल की प्रबलता अधिक होती है, फिर भाव में स्थित ग्रह का फल और सबसे कम भाव पर दृष्टि डालने वाले ग्रह का फल होता है।

कुछ ग्रहों की निष्फल स्थिति:

  • धन स्थान (द्वितीय भाव) में मंगल निष्फल होता है।
  • चतुर्थ भाव में बुध, पंचम में बृहस्पति, षष्ठ में शुक्र और सप्तम में शनि निष्फल होते हैं।
  • यदि चन्द्रमा सूर्य के साथ, मंगल के साथ द्वितीय में, बुध के साथ चतुर्थ में, बृहस्पति के साथ पंचम में, शुक्र के साथ षष्ठ में या शनि के साथ सप्तम में हो, तो निष्फल होता है। इस कारण चतुर्थ स्थान का बुध पैतृक संपत्ति में बाधा डालता है।

धन योग:

यदि द्वितीयेश एकादश में और एकादशेश द्वितीय में हो, या एकादशेश एकादश में हो, या द्वितीयेश और एकादशेश लग्न से केंद्र में हों, तो जातक धनवान और विख्यात होता है। यदि द्वितीयेश द्वादश या षष्ठ में हो, या द्वादशेश द्वितीय में हो और एकादशेश ६, ८, १२ भाव में हो, तो धन का नाश होता है।

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