तन्त्र की शिक्षाएँ – भाग १

१. ईश्वर के पाँच कार्य हैं-सृष्टि रचना, स्थिति और संहार करना तथा तिरोधान व अनुग्रह भी उसके कार्य माने गए हैं।

२. तिरोधान के कारण यह जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है जिससे वह जन्म मृत्यु के फेर में पड़ जाता है ।

३. किन्तु ईश्वर के अनुग्रह से ही वह जन्म मृत्यु के चक्कर से छूटकर मुक्त हो जाता है ।

४. वेद से श्रेष्ठ शैव शास्त्र है । शैव से श्रेष्ठ वाम, वाम से श्रेष्ठ दक्षिण, दक्षिण से कौल, उससे श्रेष्ठ त्रिक शास्त्र है, त्रिक से भी श्रेष्ठ सिद्धा, मालिनी और उत्तर श्रेष्ठ है।

५. ईश्वरीय ज्ञान ईश्वर के अनुग्रह के बिना तथा बिना गुरु के भी नहीं होता ।

६. भैरव के निराकार और साकार दो रूप बताए गए हैं। जो साकार स्वरूप है वह सब अस्थिर व विनाशी है सदा नहीं रहने वाले हैं किन्तु अज्ञानीजन उसी को सत्य व शाश्वत मानकर इसी की पूजा व आराधना करते रहते हैं। इसे सत्यमान लेना ही मिथ्या धारणा है|

७. सत्य ज्ञान की प्राप्ति पर वह इसी प्रकार इस मिथ्या ज्ञान को त्याग देता है जैसे साँप अपनी केंचुली उतारकर फेंक देता है।

८. उस निष्कल (निराकार) का वर्णन नहीं हो सकता। वह तो केवल बोधस्वरूप है जिसका ज्ञानमात्र होता है। वह स्वानुभव का ही विषय है ।

९. उस परमतत्त्व का न कोई कारण है, न कार्य, वह सभी उपमाओं से परे है। वह एक ही अद्वितीय है, अद्वय है, उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। सभी कुछ उसी के विभिन्न रूपमात्र हैं । वह दृश्य भी नहीं है तथा किसी प्रकार की कल्पना से परे है। उसकी परोक्ष अनुभूति ही होती है। वही एक मात्र चेतन स्वरूप है।

१०. शक्ति के तीन रूप हैं- परा, परापरा तथा अपरा। उसका परारूप शिव में विलीन रहता है तथा अपने परापरा तथा अपरा रूप से वह सृष्टि की रचना करती है । शक्ति शक्तिमान से भिन्न नहीं होती ।

११. ईश्वर कृपा भी सब पर नहीं होती वह भी किसी योग्य पात्र पर ही होती है जिसके लिए आरम्भ में प्रयत्न करना ही पड़ेगा।

१२. वह चेतन तत्त्व स्वयं कोई क्रिया नहीं करता वह ज्ञान स्वरूप है। सभी क्रियाएँ उसकी शक्ति से ही होती हैं क्रिया उसका स्वभाव है। शक्ति का सारा कार्य चेतना के बिना सम्भव ही नहीं है। शक्ति इस चेतन का ही एक रूप मात्र है जो उससेअभिन्न है ।

१३. शिव को अर्द्धनारीश्वर इसलिए कहा गया है कि वह चेतन व शक्ति का संयुक्त रूप है। मनुष्य भी अर्द्धनारीश्वर है ।


१४. शिव को साधा नहीं जा सकता, शक्ति की सहायता से ही शिव की पहचान होती है ।


१५. जहाँ चेतना है वहाँ शक्ति विद्यमान रहती ही है तथा जहाँ शक्ति है वहाँ चेतना है ही। दोनों अभिन्न हैं ।


१६. जिस प्रकार सूर्य से उसका प्रकाश भिन्न नहीं है उसी प्रकार शिव से उसकी शक्ति भिन्न नहीं है ।


१७. जिस प्रकार वृक्ष के बीज में पूरा वृक्ष समाया रहता है उसी प्रकार शिवरूपी चैतन्य तत्त्व में सम्पूर्ण सृष्टि समाहित रहती है ।


१८. इच्छा, ज्ञान व क्रिया ही सृष्टि रचना का कारण है । १९. शरीरों में वही शक्ति प्राणों के रूप में सभी जीवधारियों में
विद्यमान रहकर उन्हें जीवन प्रदान करती है । यह प्राणशक्ति चेतनतत्त्व शिव की ही शक्ति है। सभी क्रियाएँ इसी शक्ति से होती हैं ।


२०. प्राण और अपान के मध्य का जो अवकाश है उसमें धारणा को स्थिर करने पर शिवतत्त्व का ज्ञान हो जाता है

२१. जब सभी विचार बन्द हो जाते हैं तो उस शान्त अवस्था को ही समाधि कहा जाता है। वही शून्यता की स्थिति है । उसी में आत्मानुभव होता है ।


२२. यह संसार मन की वृत्ति के अनुसार ही दिखाई देने लगता है किसी को यह स्वर्ग से भी सुन्दर दिखाई देता है तो किसी को इसमें दुःख ही दुःख दिखाई देते हैं। उन्हें सुख कहीं दिखाई ही नहीं देता ।

२३. ध्यान साधना आरम्भ में स्थूल वस्तु से आरम्भ की जाती है। तथा क्रम से सूक्ष्म में करते हुए बढ़ते जाना चाहिए। अन्त मेंवह स्वयं शिवरूप हो जाता है।

२४. यह परमज्योति ही शिव व शक्ति स्वरूप है जिसका योगी प्रत्यक्ष दर्शन करता है जिससे उसकी भेद दृष्टि समाप्त हो जाती है । यही अद्वैत अवस्था है ।

२५. शरीर के भीतर एक अनाहतनाद निरन्तर चलता रहता है जिसे योगी लोग गहरे ध्यान से सुनते हैं । यही शब्द ब्रह्म का स्वरूप है। इसी के बाद वह परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।

२६. संगीत शास्त्र में प्रवीण व्यक्ति अनायास ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।

२७. यह ओंकार (ॐ) ही ईश्वर का वास्तविक स्वरूप है ‘सोऽहं’ यह भी प्रणव का ही स्वरूप है जो हृदय में निरन्तर चलता रहता है। हम इसी की उपासना करते हैं ।

२८. सांसारिक पदार्थों का अस्तित्व भी उस परम चैतन्य से ही है जिससे वे उससे अभिन्न हैं। उससे भिन्न किसी की सत्ता नहीं है । भिन्नता की सारी प्रतीति अज्ञान के कारण ही होती है।

२९. जिसे उस परमतत्त्व की अनुभूति नहीं हुई वही इस मिथ्या जगत् को सत्य मान लेते हैं । ज्ञान की साधना ही जीवन को उच्चता देती है।

३०. केवल यह चेतन आत्मा ही सत्स्वरूप है, अन्य सभी मिथ्या हैं। इस सत्य को जो ठीक से जान लेता है वही ज्ञानी कहा जाता है।

३१. मन को किसी एक स्थान पर केन्द्रित करना है, विधि कुछ भी हो। उसका बार-बार अभ्यास करने से चित्त की चंचल वृत्ति शांत हो जाती है । इस शांत अवस्था में ही उस चैतन्य की अनुभूति होती है ।


३२. स्वयं को जान लेना ही परमेश्वर को जान लेना है। दोनों एक ही चेतनतत्त्व के दो नाम मात्र हैं । मुक्ति का अर्थ ही है परम स्वतन्त्रता । यही परमज्ञान की स्थिति है ।


३३. यह सारा जगत् स्थूल, सूक्ष्म व पर रूप में विद्यमान है। बाद में आविर्भूत होने वाला पदार्थ अपने पूर्ववर्ती कारणतत्त्व में विद्यमान रहता ही है जैसे बीज में पूरा वृक्ष सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता ही है अन्यथा वह प्रकट कैसे हो सकता है ? इस प्रकार विश्व के सभी पदार्थ अपने कारणतत्त्व में विद्यमान रहते हैं। अतः ये सभी परमेश्वर की स्वतन्त्र शक्ति का ही विलास है।

३४. भगवान शिव अपनी दो शक्तियों की सहायता से ही सृष्टि की रचना करते हैं ये हैं चेतन व शक्ति । जिस प्रकार दो अरणी लकड़ियों के रगड़ने से अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार उन दोनों शक्तियों की सहायता से ही जगत् की रचना होती है। शिव इन दोनों का स्वामी है। वही परमेश्वर है ।


३५. यह सारा जगत् मन के द्वारा ही कल्पित है । मन की विभिन्न वृत्तियाँ ही संसार की कल्पना करती हैं। मन जैसा देखना चाहता है संसार उसे वैसा ही दिखाई देता है। मन के परिवर्तन से संसार अपने आप बदल जाता है । उसे बदलने का कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। मन के विलीन होने पर संसार भी विलीन हो जाता है।


३६. संसार बाधा नहीं है, यह मन ही बाधा है। मनुष्य ब्रह्म ही है किन्तु इस मन के कारण उसे संसार ही दिखाई दे रहा है। ब्रह्म नहीं दिखाई देता । मन के विलीन होने पर वह ब्रह्म ही हो जाता है ।

३७. विज्ञान भैरव की ये ११२ विधियाँ मन की वृत्तियों को गलित करने की ही विधियाँ हैं जिससे वह ब्रह्म स्वरूप ही हो जाताहै ।

३८. दो विचारों के मध्य जो अवकाश है वह अवकाश ही उपयोगी है । वही स्थिर अवस्था है जिस पर ध्यान केन्द्रित करने से उस चेतनतत्त्व की अनुभूति हो जाती है ।

३९. जब तक पानी में हलचल होती रहती है तब तक चन्द्रमा का बिम्ब नहीं दिखाई देता इसी प्रकार मन की चंचलता से ही आत्मा का बिम्ब नहीं दिखाई पड़ता ।

४०. चित्त जब शून्य अवस्था में पहुँच जाता है तभी यह ज्ञात होता है कि क्रिया का कारण भी वही है तथा जो ज्ञान व ज्ञेय है उसका ज्ञाता भी वही है। ऐसा ज्ञान हो जाना ही परम उपलब्धि है ।

४१. चित्त की वृत्ति ही ऐसी है कि वह अपनी इच्छित वस्तु की ओर ही आकृष्ट होती है। उस समय दूसरी वस्तु की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। जब उसे कोई इच्छित वस्तु नहीं मिलती तभी वह व्यर्थ और अनुपयोगी को ही उपयोगी समझकर उसकी ओर आकर्षित होता है। अपने इष्ट के ध्यान में लगने पर वह सांसारिक पदार्थों की ओर आकर्षित होता ही नहीं।

४२. जब चित्त अपने इष्ट में इस प्रकार स्थिर हो जाए जैसे पवन रहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है तो इसी अवस्था में योगी को परमानन्द की अवस्था प्राप्त होती है। इसी को ब्रह्मस्वरूप होना कहते हैं |

४३. मन के कारण ही संसार की सभी वस्तुओं में भेद की प्रतीति होती है। मन अभेद को नहीं जान सकता। आत्मा के तल पर ही अभेद का ज्ञान होता है।

४४. मनुष्य बाहरी विषयों में आनन्द की खोज करता है किन्तु वह वास्तविक आनन्द नहीं है। वास्तविक आनन्द तो स्वयं के भीतर ही है जो स्वयं की आत्मा है ।

४५. मनुष्य को जो आनन्द की अनुभूति होती है वह उस चेतन आत्मा के कारण ही होती है क्योंकि आत्मा स्वयं आनन्दस्वरूपहै ।

४६. शरीरों में भेद होने से आत्म चेतना में भेद नहीं हो जाता । वह सबमें समानरूप से व्याप्त है। ऐसा ज्ञान हो जाना ही परम सिद्धि है ।

४७. कई अज्ञानी ऐसे हैं जो आत्माओं को भी भिन्न-भिन्न मानकर उनमें भेद करते हैं। वे ईश्वर को भी भिन्न-भिन्न मानते हैं । ऐसी दृष्टि ही संसार में विकृति पैदा कर द्वेष फैलाती है । भारत का तन्त्र व वेदान्त दर्शन ही समत्व की बात कहता है अन्य कोई दर्शन इसकी बात नहीं करता ।

४८. आनन्द स्वयं के भीतर है जो स्त्री सहवास से प्रकट होता है स्त्री उसमें कारण नहीं है । वह स्त्री के अभाव में भी प्रकट हो सकता है। इसे ब्रह्मानन्द सहोदर माना जाता है ।

४९. भोजन, पान से जो सुख मिलता है वह भी स्वात्म सुख ही है ।

५०. पाँचों ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो उत्तम विषय ग्रहण किये जाते हैं तथाउनसे जो आनन्द मिलता है वह आनन्द ही स्वचेतना का आनन्द है। यह आनन्द ही ब्रह्मरूपिता है। इसमें स्थिर हो जाना ही ब्रह्म हो जाना है। वह आनन्द ही निज का स्वरूप है।

५१. आनन्द मनुष्य का स्वभाव ही है। उसे प्राप्त कर उसी में तन्मय हो जाना यही उपलब्धि है । जिन्हें आनन्द नहीं मिला वे ही दुःखों के रोने रोते रहते हैं। आनन्द में स्थिर हो जाना ही ब्रह्मस्वरूप हो जाना है ।

५२. मन जिस-जिस मनोहर व सुन्दर वस्तु की ओर जाता है उसमें उसे वहीं स्थिर करने का अभ्यास करे। इसमें मन को स्थिर करने से योगी परम आनन्दमय स्वात्म स्वरूप में प्रतिष्ठित हों जाता है।

५३. जब चित्त में किसी प्रकार का स्पन्दन ही नहीं होता कोई हलचल ही नहीं होती तो समाधि की यही अवस्था परमगतिहै ।

५४. जब ध्यान में ऐसी स्थिति बन जाये कि वह ध्यान में इतना गहरा चला जाये कि उसे बाहर की वस्तुएँ आँखें खुली रहने पर भी न दिखाई दे तो इसी स्थिति को प्राप्त कर योगी परावस्था को प्राप्त हो जाता है।

आगे की ५४ शिक्षाएँ अगले भाग में मिलेगी।

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