कौटिल्य अर्थशास्त्र अध्याय 1 सूत्र 1 से 23

प्रथमधिकरणम्प्रथमोऽध्याय: (1)

पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्यैः प्रस्थापितानि प्रायशस्तानि संहृत्यैकमिदमर्थशास्त्रं कृतम् ।।1।। तस्यायं प्रकरणाधिकरणमुद्देशः ।। 2 ।।

प्राचीन आचार्यों ने पृथिवी के जीतने और उसके पालन के उपायों से परिपूर्ण जितने अर्थशास्त्र (नीतिशास्त्र) लिखे हैं, प्राय: उन सबका सार लेकर इस एक अर्थशास्त्र का निर्माण किया जाता है। अब हम सर्वप्रथम इस अर्थशास्त्र के प्रकरणों को गिनाते हैं ।। 1-2

विद्यासमुद्देशः ।। 3 ।। वृद्धसंयोगः।।4।।इन्द्रियजयः ।। 5 ।। अमात्योत्पत्तिः ।। 6 ।। मन्त्रिपुरोहितोत्पत्तिः ।। 7 ।। उपधाभिः शौचाशौचज्ञानममात्यानाम् ॥8।। गूढपुरुषोत्पत्तिः ।।१॥ गूढपुरुषप्रणिधिः ।।10।। स्वविषये कृत्याकृत्यपक्षरक्षणम्।।11।। परविषये कृत्याकृत्य- पक्षोपग्रहः।।12।। मन्त्राधिकारः।।13।। दूतप्रणिधिः ।।14।। राजपुत्ररक्षणम् ।।15।। अवरुद्धवृत्तम्।। 16 ।। अवरुद्धे च वृत्तिः ।। 17 ।। राजप्रणिधिः।। 18 ।। निशान्तप्रणिधिः ।। 19॥ आत्मरक्षितकम् ।।20।। इति विनयाधिकारिकं प्रथमधिकरणम्।। 21 ।।इस शास्त्र के प्रथम अधिकरण का नाम विनयाधिकारिक है। विशेष (खास -2) नीति का आश्रय लेकर जिस प्रकरण में शिक्षा के महत्व का आरम्भ किया गया हो, उसे विनयाधिकारिक कहते हैं। इसमें बीस प्रकरण हैं। प्रथम प्रकरण का नाम विद्या समुद्देश है। इसमें जितनी विद्यायें हैं, उन सबका संक्षेप में विचार किया गया है। दूसरा वृद्ध संयोग नाम का प्रकरण है। इसमें विद्वान् पुरुषों की संगति के लाभ का विवेचन है। तीसरे में इन्द्रियों को जीतने के बारे में बताया गया है। चतुर्थ में अमात्यों (राज्य प्रबन्धकों) का वर्णन है । पाँचवें में मन्त्री और पुरोहितों का विवेचन किया गया है। छठे में अमात्यों के हृदय के भावों का छुपकर पता लगाने की चर्चा है। सातवें में गुप्तचरों की स्थापना का प्रकार बताया गया है। आठवें में गुप्तचरों के कार्यों का विवेचन है। नवें में अपने देश के शत्रु के वश में आने और नहीं आने वाले पुरुषों की दशा का वर्णन है। दसवें में शत्रु पक्ष में फूट डालने की चर्चा है। ग्यारहवें में मन्त्रणा पर प्रकाश डाला गया है। बारहवें में दूतों का विवेचन मिलता है। तेरहवें में राजपुत्रों की रक्षा के उपाय बताये गये हैं। चौदहवें में अवरुद्ध (कैद में डाले हुए) कुमारों के वृत्तान्त किये गये हैं । पन्द्रहवें में उनके साथ किये जाने वाले व्यवहार की चर्चा है। सोलहवें में राजा के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है। सत्रहवें में राज भवन के सम्बन्ध में राजा के कर्तव्यों का उल्लेख है । अट्ठारहवें में अन्य पुरुषों से राजा की रक्षा के प्रकारों का वर्णन किया है। इस प्रकार प्रथम विनयाधिकारिक नामक अधिकरण का विचार है।। 3-21।।

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