इच्छाओं का अंतहीन चक्र: क्या कोई पूर्णता है?

मनुष्य की इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। एक पूरी होती है, तो दूसरी जन्म ले लेती है। यह चक्र इतना गहरा और स्वाभाविक है कि बिना समझे हम इसमें उलझे रहते हैं। विवाह इसका एक सुंदर उदाहरण है, जहाँ एक व्यक्ति सोचता है कि उसकी इच्छा पूरी हो गई, लेकिन वह केवल एक नई यात्रा की शुरुआत होती है।

विवाह: क्या यह अंतिम लक्ष्य है?

जब कोई अविवाहित व्यक्ति विवाह की इच्छा करता है, तो उसे लगता है कि विवाह होते ही जीवन संपूर्ण और सुखी हो जाएगा। वह मन में यह सोचकर उत्साहित रहता है कि अब एक नया जीवन शुरू होगा, जहां प्रेम, सहयोग और परिवार की खुशियाँ होंगी।

लेकिन विवाह होते ही नई जिम्मेदारियाँ सामने आ जाती हैं—परिवार की देखभाल, आर्थिक प्रबंधन, रिश्तों में सामंजस्य आदि। फिर संतान की इच्छा जन्म लेती है। अब व्यक्ति सोचता है कि संतान हो जाएगी तो जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाएगा।

संतान और उनकी जिम्मेदारियाँ

जब संतान होती है, तो माता-पिता को कुछ समय तक सुख की अनुभूति होती है। लेकिन फिर संतान के लालन-पालन, शिक्षा, संस्कार, और उनके भविष्य की चिंता शुरू हो जाती है।

जब संतान बड़ी हो जाती है, तो माता-पिता की नई इच्छा जन्म लेती है—अब उनके विवाह की। वह सोचते हैं कि संतान का विवाह हो जाए तो उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी पूरी हो जाएगी। लेकिन विवाह के बाद उनकी संतान के भी बच्चे होंगे, और फिर उनकी देखभाल की चिंता शुरू हो जाती है। इस प्रकार यह चक्र कभी समाप्त नहीं होता।

इच्छाएँ और उनका भ्रम

हर व्यक्ति सोचता है कि जब उसकी वर्तमान इच्छा पूरी हो जाएगी, तो उसे शांति मिल जाएगी। लेकिन वास्तव में यह केवल एक नए अध्याय की शुरुआत होती है।

भगवद गीता में कहा गया है—

“आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।”

(भगवद गीता 2.70)

अर्थ: जैसे समुद्र में नदियाँ निरंतर प्रवाहित होती हैं, फिर भी वह स्थिर बना रहता है, वैसे ही जो व्यक्ति इच्छाओं के प्रवाह में स्थिर रहता है, वही शांति प्राप्त करता है। लेकिन जो इच्छाओं का दास बना रहता है, उसे कभी शांति नहीं मिलती।

क्या इस चक्र से मुक्ति संभव है?

1. संतोष का अभ्यास करें – जो हमारे पास है, उसे स्वीकार करें और आनंद लें।

2. स्वयं को पहचानें – हमारी इच्छाएँ वास्तव में आत्मा की आवश्यकता नहीं होतीं, बल्कि मन की अस्थायी अभिलाषाएँ होती हैं।

3. ध्यान और आत्मज्ञान – इच्छाओं से परे जाकर जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझें।

निष्कर्ष

विवाह, संतान, घर, धन—ये सभी इच्छाएँ एक अंतहीन चक्र का हिस्सा हैं। कोई भी चीज़ हमें स्थायी संतुष्टि नहीं देती, क्योंकि हर पूरी हुई इच्छा के बाद नई इच्छाएँ जन्म लेती हैं। वास्तविक संतोष तब मिलता है जब हम इस चक्र को समझकर अपने भीतर की शांति को पहचानते हैं।